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आगमसत्र-हिन्दी अनवाद
देख, जो ‘हम गृहत्यागी हैं' यह कहते हुए विविध प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय का समारंभ करते हैं । वायुकाय-शस्त्र का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं ।
इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा निरूपण किया है । कोई मनुष्य, इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सन्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोक्ष के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए स्वयं वायुकाय-शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों से वायुकाय का समारंभ करवाता है तथा समारंभ करने वालों का अनुमोदन करता है । वह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है । वह हिंसा, उसकी अबोधि के लिए होती है ।
वह अहिंसा-साधक, हिंसा को समझता हआ संयम में सुस्थिर हो जाता है ।
भगवान् के या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर उन्हें यह ज्ञात होता है कि यह हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है । फिर भी मनुष्य हिंसा में आसक्त हुआ, विविध प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय की हिंसा करता है । वायुकाय की हिंसा करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों की हिंसा करता है
[६०] मैं कहता हूँ - संपातिम - प्राणी होते हैं । वे वायु से प्रताड़ित होकर नीचे गिर जाते हैं । वे प्राणी वायु का स्पर्श होने से सिकुड़ जाते हैं । जब वे वायु-स्पर्श से संघातित होते हैं, तब मूर्छित हो जाते हैं । जब वे जीव मूर्छा को प्राप्त होते हैं तो वहाँ मर भी जाते हैं । जो यहाँ वायुकायिक जीवों का समारंभ करता है, वह इन आरंभों से वास्तव में अनजान
जो वायुकायिक जीवों पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता, वास्तव में उसने आरंभ को जान लिया है । यहजानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं वायुकाय का समारंभ न करे । दूसरों से वायुकाय का समारंभ न करवाए । वायुकाय का समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे । जिसने वायुकाय के शस्त्र-समारंभ को जान लिया है, वही मुनि परिज्ञातकर्मा (हिंसा का त्यागी) है ऐसा मैं कहता हूँ ।
[६१] तुम यहाँ जानो ! जो आचार में रमण नहीं करते, वे कर्मो से बँधे हुए हैं । वे आरंभ करते हुए भी स्वयं को संयमी बताते हैं अथवा दूसरों को विनय-संयम का उपदेश करते हैं । वे स्वच्छन्दचारी और विषयों में आसक्त होते हैं । वे आरंभ में आसक्त रहते हुए, पुनः-पुनः कर्म का संग करते हैं ।
[६२] वह वसुमान् (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूप धन युक्त) सब प्रकार के विषयों पर प्रज्ञापूर्वक विचार करता है, अन्तःकरण से पाप-कर्म को अकरणीय जाने, तथा उस विषय में
अन्वेषण भी न करे । यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं षट्-जीवनिकाय का समारंभ न करे । दूसरों से समारंभ न करवाए । समारंभ करनेवालों का अनुमोदन न करे ।
जिसने षट्-जीवनिकाय-शस्त्र का प्रयोग भलीभाँति समझ लिया, त्याग दिया है, वही परिज्ञातकर्मा मुनि कहलाता है । ऐसा मैं कहता हूँ ।
(अध्ययन-१ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवादपूर्ण)