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________________ सूत्रकृत - २/३/-/६८७ २२७ अवयवों में, कई पृथ्वीयोनिक तृणों में, कई तृणयोनिक तृणों में, कई तृणयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, इसी तरह औषधि और हरितों के सम्बन्ध में तीन-तीन आलापक कहे गए हैं, कई पृथ्वीयोनिक आय, काय से लेकर कूट तक के वनस्पतिकायिक अवयवों में, 'कई उदकयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षों में, तथा वृक्षयोनिक मूल से लेकर बीज तक के अवयवों में, इसी तरह अध्यारूहों, तृणों, औषधियों और हरितों में (पूर्वोक्तवत् तीन-तीन आलापक हैं, तथा कई उदकयोनिक उदक, अवक से लेकर पुष्कराक्षिभगों में त्रस - प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों के, जलयोनिक वृक्षों के, अध्यारूहयोनिक वृक्षों के, एवं तृणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक वृक्षों के तथा वृक्ष, अध्यारूह, तृण, औषधि, हरित, एवं मूल से लेकर बीज तक के, तथा आय, काय से लेकर कूट वनस्पति तक के एवं उदक अवक से लेकर पुष्कराक्षिभग वनस्पति तक के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन वृक्षयोनिक, अध्यारूयोनिक, तृणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक, मूल योनिक, कन्दयोनिक, से लेकर बीजयोनिक पर्यन्त, तथा आय, काय से लेकर कूटयोनिकपर्यन्त, एवं अवक अवकयोनि से लेकर पुष्ाक्षिभगयोनिकपर्यन्त सजीवों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान से युक्त तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । ये सभी जीव स्वस्वकर्मानुसार ही अमुक-अमुक रूप में अमुकयोनि में उत्पन्न होते हैं । ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है । I [६८८] इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने मनुष्यों का स्वरूप बतलाया है । जैसे किकई मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न होते हैं, कई अकर्मभूमि में और कई अन्तद्वीपों में उत्पन्न होते हैं । कोई आर्य हैं, कोई म्लेच्छ । उन जीवों की उत्पति अपने अपने बीज और अपने - अपने अवकाश के अनुसार होती है । इस उत्पत्ति के कारणरूप पूर्वकर्मनिर्मित योनि में स्त्री पुरुष का मैथुनहेतुक संयोग उत्पन्न होता है । दोनों के स्नेह का आहार करते हैं, तत्पश्चात् वे जीव वहाँ स्त्रीरूप में, पुरुषरूप में और नपुंसकरूप में उत्पन्न होते हैं । सर्वप्रथम वे जीव माता के रज और पिता के वीर्य का, जो परस्पर मिले हुए कलुष और घृणित होते हैं, ओज - आहार करते हैं । उसके पश्चात् माता, जिन अनेक प्रकार की सरस वस्तुओं का आहार करती है, वे जीव उसके एकदेश का ओज आहार करते हैं । क्रमशः वृद्धि एवं परिपाक को प्राप्त वे जीव माता के शरीर से निकलते हुए कोई स्त्रीरूप में, कोई पुरुषरूप में और कोई नपुंसक रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव बालक होकर माता के दूध और घी का आहार करते हैं । क्रमशः बड़े हो कर वे जीव चावल, कुल्माष एवं त्रस - स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं । फिर वे उनके शरीर को अचित करके उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तद्वपज, आर्य और म्लेच्छ आदि अनेकविध मनुष्यों के शरीर नानावर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श एवं संस्थान वाले नाना पुद्गलों से रचित होते हैं । ऐसा कहा है । [६८९] इसके पश्चात् तीर्थंकरदेव ने पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जलचरों का वर्णन किया है, जैसे कि-मत्स्यों से लेकर सुंसुमार तक के जीव पंचेन्द्रियजलचर तिर्यञ्च हैं । वे जीव अपनेअपने बीज और अवकाश के अनुसार स्त्री और पुरुष का संयोग होने पर स्व-स्वकर्मानुसार
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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