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________________ २२६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद नानाविध पृथ्वीयोनिक पृथ्वीयों पर हरित के रूप में, (२) पृथ्वीयोनिक हरितों में हरित के रूप में, (३) हरित योनिक हरितों में हरित (अध्यारूह) के रूप में, एवं (४) हरितयोनिक हरितों में मूल से लेकर बीज तक के रूप में एवं उनका सारा वर्णन भी पूर्ववत् समझ लेना। [६८६] इस वनस्पतिकाय जगत् में कई जीव पृथ्वीयोनिक होते हैं, वे पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी पर ही रहते और उसी पर ही विकसित होते हैं । वे पूर्वोक्त पृथ्वीयोनिक वनस्पतिजीव स्व-स्वकर्मोदयवश कर्म के कारण ही वहाँ आकर उत्पन्न होते हैं । वे नाना प्रकार की योनि वाली पृथ्वीयों पर आय, वाय, काय, कूहण, कन्दुक, उपेहणी, निर्वेहणी, सछत्रक, छत्रक, वासानी एवं कूर नामक वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव उन नानाविध योनियों वाली पृथ्वीयों के स्नेह का आहार करते हैं, तथा वे जीव पृथ्वीकाय आदि छहों काय के जीवों के शरीर का आहार करते हैं । पहले उनसे रस खींच कर वे उन्हें अचित्त-प्रासुक कर देते हैं, फिर उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । उन पृथ्वीयोनिक आयवनस्पति से लेकर क्रूरवनस्पति तक के जीवों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आकार-प्रकार और ढांचे वाले तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । इन जीवों का एक ही आलापक होता है, शेष तीन आलापक नहीं होते । इस वनस्पतिकायजगत् में कई उदकयोनिक वनस्पतियाँ होती हैं, जो जल में ही उत्पन्न होती हैं, जल में ही रहती और उसी में बढ़ती हैं । वे उदकयोनिक वनस्पति जीव पूर्वकृत कर्मोदयवश-कर्मों के कारण ही उनमें आते हैं और नाना प्रकार की योनियों वाले उदकों में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव नानाप्रकार के जाति वाले फलों के स्नेह का आहार करते हैं । वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पतिकाय के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन जलयोनिक वृक्षों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान वाले तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । वे जीव स्वकर्मोदयवश ही जलयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं | पृथ्वीयोनिक वृक्ष के चार भेदों के समान ही यहाँ जलयोनिक वृक्षों के भी चार भेदों के भी प्रत्येक के चार-चार आलापक कहने चाहिए । इस वनस्पतिकायजगत् में कई जीव उदकयोनिक होते हैं, जो जल में उत्पन्न होते हैं, वही रहते और वहीं संवृद्धि पाते हैं । वे जीव अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण ही तथारूप वनस्पतिकाय में आते हैं और वहाँ वे अनेक प्रकार की योनि के उदकों में उदक, अवक, पनक, शैवाल, कलम्बुक, हड, कसेरुक, कच्छभाणितक, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्त्रपत्र, कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस, भिस, मृणाल, पुष्कर, पुष्कराक्षिभग के रूप में उत्पन्न होते हैं । वे जीव नाना जाति वाले जलों के स्नेह का आहार करते हैं, तथा पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं । उन जलयोनिक वनस्पतियों के विभिन्न वर्ण, गन्ध, स्स, स्पर्श, संस्थान से युक्त एवं नानाविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं । वे सभी जीव स्व-कृतकर्मानुसार ही इन जीवों में उत्पत्र होते हैं, ऐसा ने कहा है । इसमें केवल एक ही आलापक होता है । [६८] इस वनस्पतिकायिक जगत् में कई जीव-पृथ्वीयोनिक वृक्षों में, कई वृक्षयोनिक वृक्षों में, कई वृक्षयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, कई वृक्षयोनिक अध्यारूह वृक्षों में, कई अध्यारूह योनिक अध्यारूहों में कई अध्यारूझ्योनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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