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आचार-१/१/४/३७
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लिए, प्रशंसा, सन्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के निमित्त, तथा दुःखों का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं अग्निकाय का समारंभ करते हैं । दूसरों से अग्निकाय का समारंभ करवाते हैं । अग्निकाय का समारंभ करने वालों का अनुमोदन करते हैं ।
यह (हिंसा) उनके अहित के लिए होती है । यह उनकी अबोधि के लिए होती है ।
वह उसे भली भांति समझे और संयम-साधना में तत्पर हो जाये । तीर्थंकर आदि प्रत्यक्ष ज्ञानी अथवा श्रुत-ज्ञानी मुनियों के निकट से सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है कि जीव-हिंसा-ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है ।
फिर भी मनुष्य जीवन, मान, वंदना आदि हेतुओं में आसक्त हए विविध प्रकार के शस्त्रों से अग्निकाय का समारंभ करते हैं । और अग्निकाय का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणों की भी हिंसा करते हैं ।
[३८] मैं कहता हूँ - बहुत से प्राणी - पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर और कूडाकचरा आदि के आश्रित रहते हैं । कुछ सँपातिम प्राणी होते हैं जो उडते-उडते नीचे गिर जाते हैं । ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात को प्राप्त होते हैं । शरीर का संघात होने पर अग्नि की ऊष्मा से मूर्छित हो जाते हैं । बाद में मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते हैं ।
[३९] जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र-प्रयोग करता है, वह इन आरंभ-समारंभ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिज्ञात होता है । जो अग्निकाय पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता है, वास्तव में वह आरंभ का ज्ञाता हो जाता है । जिसने यह अग्नि-कर्म-समारंभ भली भांति समझ लिया है, वही मुनि है, वही परिज्ञात-कर्मा है । ऐसा मैं कहता हूँ ।
| अध्ययन-१ उद्देसक-५ [४०] मैं संयम अंगीकार करके वह हिंसा नहीं करूंगा । बुद्धिमान संयम में स्थिर होकर मनन करे और 'प्रत्येक जीव अभय चाहता है' यह जानकर (हिंसा न करे) जो हिंसा नहीं करता, वही व्रती है । इस अर्हत्-शासन में जो व्रती है, वही अनगार है ।
[४१] जो गुण (विषय) हैं, वह आवर्त/संसार है । जो आवर्त है वह गुण हैं ।
[४२] ऊँचे, नीचे, तिरछे, सामने देखनेवाला रूपों को देखता है । सुनने वाला शब्दों को सुनता है ।
[४३] ऊँचे, नीचे, तिरछे, विद्यमान वस्तुओं में आसक्ति करने वाला, रूपों में मूर्च्छित होता है, शब्दों में मूर्छित होता है । यह (आसक्ति) ही संसार है ।
जो पुरुष यहाँ (विषयों में) अगुप्त है । इन्द्रिय एवं मन से असंयत है, वह आज्ञा -धर्म-शासन के बाहर है ।
[४४] जो बार-बार विषयों का आस्वाद करता है, उनका भोग-उपभोग करता है, वह वक्रसमाचार - अर्थात् असंयममय जीवन वाला है ।
[४५] वह प्रमत्त है तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है ।
[४६] तू देख ! ज्ञानी हिंसा से लज्जित/विरत रहते हैं । 'हम गृहत्यागी हैं,' यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के शस्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारंभ करते हैं । वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं ।