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सूत्रकृत-२/२/-/६६४
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अकारण ही गृहपति या गृहपतिपुत्रों के कुण्डल, मणि, या मोती आदि को स्वयं चुरा लेता है, या दूसरों से चोरी करवाता है, अथवा जो चोरी करता है, उसे अच्छा समझता है ।
(११) कोई व्यक्ति स्वकृत दुष्कर्मों के फल का जरा भी विचार नहीं करता । वह अकारण ही श्रमणों या माहनों के छत्र, दण्ड, कमण्डलु, भण्डोपकरणों से लेकर चर्मछेदनक एवं चर्मकोश तक साधनों का स्वयं अपहरण कर लेता है, औरों से अपहरण करता है और जो अपहरण करता है, उसे अच्छा समझता है । इस कारण जगत् में स्वयं को महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर देता है ।
(११) ऐसा कोई व्यक्ति श्रमण और माहन को देख कर उनके साथ अनेक प्रकार के पापमय व्यवहार करता है और उस महान् पापकर्म के कारण उसकी प्रसिद्धि महापापी के रूप में हो जाती है । अथवा वह चुटकी बजाता है अथवा कठोर वचन बोलता है । भिक्षाकाल में भी अगर साधु उसके यहाँ दूसरे भिक्षुओं के पीछे भिक्षा के लिए प्रवेश करता है, तो भी वह साधु को स्वयं आहारादि नहीं देता दूसरा, कोई देता हो तो उसे यह कह कर भिक्षा देने से रोक देता है ये पाखण्डी बोझा ढोते थे या नीच कर्म करते थे, कुटुम्ब के या बोझे के भार से (घबराए हुए) थे । ये बड़े आलसी हैं, ये शूद्र हैं, दरिद्र हैं, (सुखलिप्सा से) ये श्रमण एवं प्रव्रजित हो गए हैं ।
__ वे लोग इस जीवन को जो वस्तुतः धिम्जीवन है, उलटे इसकी प्रशंसा करते हैं । वे साधुद्रोहजीवी मूढ़ परलोक के लिए भी कुछ भी साधन नहीं करते; वे दुःख पाते हैं, वे शोक पाते हैं, वे दुःख, शोक पश्तात्ताप करते हैं, वे क्लेश पाते हैं, वे पीड़ावश छाती-माथा कूटते हैं, सन्ताप पाते हैं, वे दुःख, शोक पश्चात्ताप, क्लेश, पीड़ावश सिर पीटने आदि की क्रिया, संताप, वध, बन्धन आदि परिक्लेशों से कभी निवृत्त नहीं होते । वे महारम्भ और महासमारम्भ नाना प्रकार के पाप कर्मजनक कुकृत्य करके उत्तमोत्तम मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हैं ।
जैसे कि-वह आहार के समय आहार का, पीने के समय पेय पदार्थों का, वस्त्र परिधान के समय वस्त्रों का, आवास के समयं आवासस्थान का, शयन के समय शयनीय पदार्थों का उपभोग करते हैं । वह प्रातः काल, मध्याह्नकाल और सायंकाल स्नान करते हैं फिर देव-पूजा के रूप में बलिकर्म करते चढ़ावा चढ़ाते हैं, देवता की आरती करके मंगल के लिए स्वर्ण, चन्दन, दही, अक्षत और दर्पण आदि मांगलिक पदार्थों का स्पर्श करते हैं, फिर प्रायश्चित्त के लिए शान्तिकर्म करते हैं । तत्पश्चात् सशीर्ष स्नान करके कण्ठ में माला धारण करते हैं । वह मणियों और सोने को अंगों में पहनता है, सिर पर पुष्पमाला से युक्त मुकुट धारण करता है । वह शरीर से सुडौल एवं हृष्टपुष्ट होता है । वह कमर में करधनी तथा वक्षस्थल पर फूलों की माला पहनता है । बिलकुल नया और स्वच्छ वस्त्र पहनता है । चन्दन का लेप करता है । इस प्रकार सुसज्जित होकर अत्यन्त ऊंचे विशाल प्रासाद में जाता है । वहाँ वह बहुत बड़े भव्य सिंहासन पर बैठता है । वहाँ युवतियां उसे घेर लेती हैं । वहाँ सारी रातभर दीपक आदि का प्रकाश जगमगाता रहता है । फिर वहाँ बड़े जोर से नाच, गान, वाद्य, वीणा, तल, ताल, त्रुटित, मृदंग तथा करतल आदि की, ध्वनि गती है । इस प्रकार उत्तमोत्तम मनुष्यसम्बन्धी भोगों का उपभोग करता हुआ वह अपना जीवन व्यतीत करता है । वह व्यक्ति जब किसी