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________________ सूत्रकृत-२/१/-/६४७ २०३ इस कारण से वह साधु महान् कर्मों के आदान से मुक्त हो जाता है, शुद्ध संयम में उद्यत रहता है तथा पाप कर्मों से निवृत्त हो जाता है । जो ये सचित्त या अचित्त काम-भोग हैं, वह भिक्षु स्वयं उनका परिग्रह नहीं करता, न दूसरों से परिग्रह कराता है, और न ही उनका परिग्रह करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करता है । इस कारण से वह भिक्षु महान् कर्मों के आदान से मुक्त हो जाता है यावत् पापकर्मों से विरत हो जाता है ।। जो यह साम्परायिक कर्म-बन्ध किया जाता है, उसे भी वह भिक्षु स्वयं नहीं करता, न दूसरों से कराता है, और न ही साम्परायिक कर्म-बन्धन करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है । इस कारण वह भिक्षु महान् कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है, वह शुद्ध संयम में रत और पापों से विरत रहता है । यदि वह भिक्षु यह जान जाए कि अमुक श्रावक ने किसी निष्परिग्रह साधर्मिक साधु को दान देने के उद्देश्य से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का आरम्भ करके आहार बनाया है, खरीदा है, उधार लिया है, वलात् छीन कर लिया है, स्वामी से पूछे बिना ही ले लिया है, साधु के सम्मुख लाया हुआ है, साधु के निमित्त से बनाया हुआ है, तो ऐसा सदोष आहार वह न ले । कदाचित् भूल से ऐसा सदोष आहार ले लिया हो तो स्वयं उसका सेवन न करे, दूसरे साधुओं को भी वह आहार न खिलाए, और न ऐसा सदोष आहार' सेवन करने वाले को अच्छा समझे । इस प्रकार के सदोष आहारत्याग से वह भिक्षु महान् कर्मों के बन्धन से दूर रहता है यावत् पाप कर्मों से विरत रहता है । • यदि साधु यह जान जाए कि गृहस्थ ने जिनके लिए आहार बनाया है वे साधु नहीं, अपितु दूसर हैं; जैसे कि गृहस्थ ने अपने पुत्रों के लिए अथवा पुत्रियों, पुत्रवधुओं के लिए, धाय के लिए, ज्ञातिजनों के लिए, राजन्यों, दास, दासी, कर्मकर, कर्मकरी तथा अतिथि के लिए, या किसी दूसरे स्थान पर भेजने के लिए या रात्रि में खाने के लिए अथवा प्रातः नाश्ते के लिए आहार बनाया है, अथवा इस लोक में जो दूसरे मनुष्य हैं, उनको भोजन देने के लिए उसने आहार का अपने पास संचय किया है; ऐसी स्थिति में साधु दूसरे के द्वारा दूसरों के लिए बनाये हुए तथा उद्गम, उत्पाद और एषणा दोष से रहित शुद्ध, एवं अग्नि आदि शस्त्र द्वारा परिणत होने से प्रासुक बने हुए एवं अग्नि आदि शस्त्रों द्वा निर्जीव किये हुए अहिंसक तथा एषणा से प्राप्त, तथा साधु के वेषमात्र से प्राप्त, सामुदायिक भिक्षा से प्राप्त, गीतार्थ के द्वारा ग्राह्य कारण से साधु के लिए ग्राह्य प्रमाणोपेत, एवं गाड़ी को चलाने के लिए उसकी धुरी में दिये जाने वाले तेल तथा घाव पर लगाये गए लेप के समान केवल संयमयात्रा के निर्वाहार्थ ग्राह्य आहार का बिल में प्रवेश करते हुए साँप के समान स्वाद लिये बिना ही सेवन करे । जैसे कि वह भिक्षु अन्नकाल में अन्न का, पानकाल में पान का, वस्त्र काल में वस्त्र का, मकान समय में मकान का, शयनकाल में शय्या का ग्रहण एवं सेवन करता है । . वह भिक्षु मात्रा एवं विधि का ज्ञाता होकर किसी दिशा या अनुदिशा में पहुंचकर, धर्म का व्याख्यान करे, विभाग करके प्रतिपादन करे, धर्म के फल का कीर्तन-करे । साधु उपस्थित अथवा अनुपस्थित श्रोताओं को धर्म का प्रतिपादन करे । साधु के लिए विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव, लाघव तथा समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व के प्रति अहिंसा आदि धर्मों के अनुरूप विशिष्ट चिन्तन करके धर्मोपदेश दे । धर्मोपदेश करता हुआ साधु अन्न के लिए, पान के लिए, सुन्दर वस्त्र-प्राप्ति के लिए, सुन्दर आवासस्थान के लिए,
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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