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________________ २०२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद आदि से पीटता है, अथवा अंगुली दिखा कर धमकाता है, या डाँटता है, अथवा ताड़न करता है, या सताता है, अथवा क्लेश, उद्विग्न, या उपद्रव करता है, या डराता है, तो मुझे दुःख होता है, यहाँ तक कि मेरा एक रोम भी उखाड़ता है तो मुझे मारने जैसा दुःख और भय का अनुभव होता है । इसी तरह सभी जीव, सभी भूत, समस्त प्राणी और सर्व सत्त्व, डंडे, मुक्के, हड्डी, चाबुक यावत् उद्विग्न किये जाने से, यहाँ तक कि एक रोम मात्र के उखाड़े जाने से वे मृत्यु का-सा कष्ट एवं भय महसूस करते हैं । ऐसा जान कर समस्त प्राण, भूत, जीव, और सत्त्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उन्हें बलात् अपनी आज्ञा का पालन नहीं कराना चाहिए, न उन्हें बलात् पकड़ कर या दास-दासी आदि के रूप में खरीद कर रखना चाहिए, न ही किसी प्रकार का संताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न करना चाहिए । इसलिए मैं कहता हूँ भूतकाल में जो भी अर्हन्त हो चुके, वर्तमान में जो भी तीर्थंकर हैं, तथा जो भी भविष्य में होंगे; वे सभी अर्हन्त भगवान् ऐसा ही उपदेश देते हैं। ऐसा ही कहते हैं, ऐसा ही बताते हैं, और ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, न ही बलात् उनसे आज्ञा-पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में पकड़ कर या खरीद कर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए, और न उन्हें उद्विग्न करना चाहिए । यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है । समस्त लोक को केवल-ज्ञान के प्रकाश में जान कर जीवों के खेद को या क्षेत्र को जानने वाले श्री तीर्थंकरों ने इस धर्म का प्रतिपादन किया है । - इस प्रकार वह भिक्षु प्राणातिपात से लेकर परिग्रह-पर्यन्त पाँचों आश्रवों से विरत हो, दाँतों को साफ न करे, आँखों में अंजन न लगाए, वमन न करे, तथा अपने वस्त्रों या आवासस्थान को सुगन्धित न करे और धूम्रपान न करे | वह भिक्षु सावधक्रियाओं से रहित, जीवों का अहिंसक, क्रोधरहित, निर्मानी अमायी, निर्लोभी, उपशान्त एवं परिनिर्वृत होकर रहे । वह अपनी क्रिया से इहलोक-परलोक में काम-भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा न करे, (जैसे कि) यह जो ज्ञान मैंने जाना-देखा है, सुना है अथवा मनन किया है, एवं विशिष्ट रूप से अभ्यस्त किया है, तथा यह जो मैने तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि चारित्र का सम्यक् आचरण किया है, एवं मोक्षयात्रा का तथा शरीर-निर्वाह के लिए अल्पमात्रा में शुद्ध आहार ग्रहणरूप धर्म का पालन किया है। इन सब सुकार्यों के फलस्वरूप यहाँ से शरीर छोड़ने के पश्चात् परलोक मे मैं देव हो जाऊँ, समस्त काम-भोग मेरे अधीन हो जाएँ, मैं अणिमा आदि सिद्धियों से युक्त हो जाऊँ, एवं सब दुःखों तथा अशुभकर्मों से रहित हो जाऊं; क्योंकि विशिष्टतपश्चर्या आदि के होते हुए भी कभी अणिमादि सिद्धि प्राप्त हो जाती है, कभी नहीं भी होती । जो भिक्षु मनोज्ञ शब्दों, रूपों, गन्धों, रसों, एवं कोमल स्पर्शों में अमूर्छित रहता है, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, संयम में अरति, असंयम में रति, मायामृषा एवं मिथ्यादर्शन रूप शल्य से विरत रहता है; इस कारण से वह भिक्षु महान् कर्मों के आदान से रहित हो जाता है, वह सुसंयम में उद्यत हो जाता है, तथा पापों से विरत हो जाता है । जो ये त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका वह भिक्षु स्वयं समारंभ नहीं करता, न वह दूसरों से समारम्भ कराता है, और न ही समारम्भ करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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