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________________ १९८ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद पिंजरे को नहीं तोड़ सकता वैसे ही वे अपने ईश्वर-कर्तृत्ववाद को अत्यन्ताग्रह के कारण नहीं छोड़ सकते, अतः इस मत के स्वीकार करने से उत्पन्न दुःख को नहीं तोड़ सकते । वे इन बातों को नहीं मानते जैसे कि- पूर्वसूत्रोक्त क्रिया से लेकर अनिरय तक हैं । वे नाना प्रकार के पापकर्मयुक्त अनुष्ठानों के द्वारा कामभोगों के उपभोग के लिए अनेक प्रकार के कामभोगों का आरम्भ करते हैं । वे अनार्य हैं, वे विपरीत मार्ग को स्वीकार किये हुए हैं । इस प्रकार के ईश्वरकर्तृत्ववाद में श्रद्धाप्रतीति रखने वाले वे धर्मश्रद्धालु राजा आदि उन मतप्ररूपक साधकों की पूजा भक्ति करते हैं, इत्यादि वे उभयभ्रष्ट लोग बीच में ही कामभोगों में फंस कर दुःख पाते हैं । यह तीसरे ईश्वरकारणवादी का स्वरूप कहा गया है । [६४४] अब नियतिवादी नामक चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है । इस मनुष्यलोक में पूर्वादि दिशाओं के वर्णन से यावत् प्रथम पुरुषोक्त पाठ के समान जानना । पूर्वोक्त राजा और उसके सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है । उसे धर्मश्रद्धालु जान कर उसके निकट जाने का श्रमण और ब्राह्मण निश्चय करते हैं । यावत् वे उसके पास जाकर कहते हैं- "मैं आपको पूर्वपुरुषकथित और सुप्रज्ञप्त धर्म का उपदेश करता हूं ।" इस लोक में दो प्रकार के पुरुष होते हैं- एकपुरुष क्रिया का कथन करता है, दूसरा क्रिया का कथन नहीं करता । वे दोनों हो नियति के अधीन होने से समान हैं, तथा वे दोनों एक ही अर्थ वाले और एक ही कारण (नियतिवाद) को प्राप्त है । ये दोनों ही अज्ञानी हैं, अपने सुख दुःख के कारणभूत काल, कर्म तथा ईश्वर आदि को मानते हुए यह समझते हैं कि मैं जो कुछ भी दुःख पा रहा हूं, शोक कर रहा हूं, दुःख से आत्मनिन्दा कर रहा हूं, या शारीरिक बल का नाश कर रहा हूं, पीड़ा पा रहा हूं, या संतप्त हो रहा हूं, वह सब मेरे ही किये हुए कर्म हैं, तथा दूसरा जो दुःख पाता है, शोक करता है, आत्मनिन्दा करता है, शारीरिक बल का क्षय करता है, पीड़ित होता है या संतप्त होता है, वह सब उसके द्वारा किये हुए कर्म हैं । इस कारण वह अज्ञजीव स्वनिमित्तक तथा परनिमित्तक सुखदुःखादि को अपने तथा दूसरे के द्वारा कृत कर्मफल समझता है, परन्तु एकमात्र नियति का ही समस्त पदार्थों का कारण मानने वाला पुरुष तो यह समझता है कि 'मैं जो कुछ दुःख भोगता हूं, शोकमग्न होता हूं या संतप्त होता हूं, वे सब मेरे किये हुए कर्म नहीं हैं, तथा दूसरा पुरुष जो दुःख पाता है, शोक आदि से संतप्त - पीड़ित होता है, वह भी उसके द्वारा कृतकर्मों का फल नहीं है, इस प्रकार वह बुद्धिमान् पुरुष अपने या दूसरे के निमित्त से प्राप्त हुए दुःख आदि को यों मानता है कि ये सब नियतिकृत हैं, किसी दूसरे के कारण से नहीं । अतः मैं कहता हूं कि पूर्व आदि दिशाओं में रहने वाले जो त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियति के प्रभाव से ही औदारिक आदि शरीर की रचना को प्राप्त करते हैं, वे नियति के कारण ही बाल्य, युवा और वृद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं, वे नियतिवशात् ही शरीर से पृथक् होते हैं, काना, कुबड़ा आदि नाना प्रकार की दशाओं को प्राप्त करते हैं, नियति का आश्रय लेकर ही नाना प्रकार के सुख-दुःखों को प्राप्त करते हैं ।" इस प्रकार नियति को 'समस्त अच्छे बुरे कार्यों का कारण मानने की कल्पना करके नियतिवादी आगे कही जाने वाली बातों को नहीं मानते क्रिया, अक्रिया से लेकर प्रथम सूत्रोक्त नरक और नरक से अतिरिक्त गति तक के पदार्थ । इस प्रकार वे नियतिवाद के चक्र
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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