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________________ सूत्रकृत-२/१/-/६४२ १९७ अधर्म न मानने वाले वे पंचमहाभूतवादी स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में मूर्छित होकर न तो इहलोक के रहते हैं और न ही परलोक के । उभयभ्रष्ट होकर बीच में ही कामभोगों में फंस कर कष्ट पाते हैं । यह दूसरा पुरुष पाञ्चमहाभूतिक कहा गया है [६४३] तीसरा पुरुष 'ईश्वरकारणिक' कहलाता है । इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, जो क्रमशः इस लोक में उत्पन्न हैं । जैसे कि उनमें से कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य इत्यादि । उनमें कोई एक श्रेष्ठ पुरुष महान् राजा होता है, इत्यादि पूर्ववत् । इन पुरुषों में से कोई एक धर्मश्रद्धालु होता है । उस धर्मश्रद्धालु के पास जाने का तथाकथित श्रमण और ब्राह्मण निश्चय करते हैं । वे उसके पास जा कर कहते हैं-है भयत्राता महाराज ! मैं आपको सच्चा धर्म सुनाता हूं, जो पूर्वपुरुषों द्वारा कथित एवं सुप्रज्ञप्त है, यावत् आप उसे ही सत्य समझें । इस जगत् में जितने भी चेतन-अचेतन धर्म हैं, वे सब पुरुषादिक हैं-ईश्वर या आत्मा आदि कारण है; वे सब पुरुषोत्तरिक हैं-ईश्वर या आत्मा ही सब पदार्थों का कार्य है, अथवा संहारकर्ता है, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रणीत हैं, ईश्वर से ही उत्पन्न हैं, ईश्वर द्वारा प्रकाशित हैं, ईश्वर के अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर टिके हुए हैं । जैसे किसी प्राणी के शरीर में हुआ फोड़ा शरीर से ही उत्पन्न होता है, बढ़ता है, अनुगामी बनता है और शरीर का ही आधार लेकर टिकता है, इसी तरह सभी धर्म ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, वृद्धिगत होते हैं, अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर ही स्थित रहते हैं । जैसे अरति शरीर से ही उत्पन्न होती है, बढ़ती है, अनुगामिनी बनती है, और शरीर को ही पीड़ित करती हुई रहती है, इसी तरह समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न, वद्धिगत और उसी के आश्रय से स्थित हैं । जैसे वल्मीक पृथ्वी से उत्पन्न होता है, बढ़ता है, अनुगामी है तथा पृथ्वी का ही आश्रय लेकर रहता है, वैसे ही समस्त पदार्थ भी ईश्वर से ही उत्पन्न हो कर उसी में लीन होकर रहते हैं। जैसे कोई वृक्ष मिट्टी से ही उत्पन्न होता है, संवर्द्धन होता है, अनुगामी बनता है, और मिट्टी में ही व्याप्त होकर रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न, संवर्द्धित और अनुगामिक होते हैं और अन्त में उसी में व्याप्त हो कर रहते हैं । जैसे पुष्करिणी पृथ्वी से उत्पन्न होती है, और यावत् पृथ्वी में ही लीन होकर रहती है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और उसी में ही लीन हो कर रहते हैं । जैसे कोई जल का पुष्कर हो, वह जल से ही उत्पन्न होता है यावत् जल को ही व्याप्त करके रहता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न संवर्द्धित एवं अनुगामी होकर उसी में विलीन होकर रहते हैं । जैसे कोई पानी का बुबुद् पानी से उत्पन्न होता है, यावत् अन्त में पानी में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसी में व्याप्त होकर रहते हैं । यह जो श्रमणों-निर्ग्रन्थों द्वारा कहा हुआ, रचा हुआ या प्रकट किया हुआ द्वादशाङ्ग गणिपिटक है, जैसे कि आचारांग, सूत्रकृतांग से लेकर दृष्टिवाद तक, यह सब मिथ्या है, यह तथ्य नहीं है और न ही यह यथातथ्य है, यह जो हमारा (ईश्वरकर्तृत्ववाद है) यह सत्य है, तथ्य है, यथातथ्य है । इस प्रकार वे ऐसी संज्ञा रखते हैं; वे अपने शिष्यों के समक्ष तथा सभा में भी वे इसी मान्यता से सम्बन्धित युक्तियाँ मताग्रहपूर्वक उपस्थित करते हैं । जैसे पक्षी
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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