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सूत्रकृत - १/८/-/४३२
एवं सर्वतः कर्मफल युक्त होता है ।
[४३३] जो बुद्ध, महाभाग, वीर और सम्यक्त्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम शुद्ध और सर्वतः कर्मफल रहित होता है ।
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[४३४] जो महाकुल से निष्क्रान्त हैं, वे दूसरों से अपमानित होने पर आत्म प्रशंसा नहीं करते हैं, उनका तप शुद्ध होता है ।
[४३५] सुव्रत अल्पपिण्डी, अल्पजलग्राही तथा अल्पभाषी बने, जिससे वह सदा क्षांत, अभिनिर्वृत्त, दान्त एवं वीतगृद्ध होता है ।
[४३६] ध्यान योग को समाहृत कर सर्वशः काया का व्युत्सर्ग करे । तितिक्षा को उत्कृष्ट जानकर मोक्ष पर्यन्त परिव्रजन करे । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन - ८ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन - ९ धर्म
[४३७] मतिमान् माहन द्वारा कौनसा धर्म आख्यात है ? तीर्थंकरों के ऋजु और यथार्थ धर्म को मुझसे सुनो ।
[४३८] माहण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, वर्णसंकर, एषिक/शिकारी, वैशिक, शूद्र तथा अन्य लोग भी आरम्भाश्रित हैं ।
[४३९] जो परिग्रह में मूर्च्छित है, उनका वैर बढ़ता है, उके काम आरम्भ - संभृत हैं । वे दुःख विमोचक नहीं है ।
[४४०] विषय- अभिलाषी ज्ञातिजन मरणोपरान्त किये जाने वाले अनुष्ठान के पश्चात् धन का हरण कर लेते हैं । कर्मी कर्म से कृत्य करता है ।
[४४१] जब मैं स्वकर्मों से लिप्तमान हूँ तब माता-पिता, पुत्र- वधु, भाई, पत्नी और औरस पुत्र मेरी रक्षा करने में असमर्थ हैं ।
[ ४४२ ] परमार्थानुगामी भिक्षु इस अर्थ को समझकर निर्मम और निरहंकार होकर निजोक्त धर्म का आचरण करे ।
[ ४४३] वित्त, पुत्र, ज्ञातिजन और परिग्रह का त्यागकर और अन्त में श्रोत को छोड़ कर भिक्षु निरपेक्ष विचरण करे ।
[ ४४४ ] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, तृण, वृक्ष और सबीजक, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेज और उद्भिज [ ये जीव ] हैं ।
[४४५] हे विज्ञ ! षट्कायिक जीवों को जानो । मन, काय एवं वाक्य से आरम्भी एवं परिग्रही मत बनो ।
[४४६] हे विज्ञ ! मृषावाद, बहिद्ध ( बाह्य वस्तु) एवं अयाचित अवग्रह को लोक में शस्त्रादान / शस्त्र-प्रयोग समझो ।
[४४७ ] हे विज्ञ ! माया, लोभ, क्रोध और मान को लोक में धूर्त-क्रिया समझो । [ ४४८] हे विज्ञ ! प्रक्षालन, रंगना, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, शिरोवेध को समझो और ऊसको त्यागो ।
[ ४४९] हे विज्ञ ! गंध, माल्य, स्नान, दन्तप्रक्षालन, परिग्रह और स्त्रीकर्म को समझो।
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