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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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प्राणियों एवं भूतों को वश में करने वाले मंत्रों का अध्ययन करते हैं ।
[४१५] मायावी माया करके काम भोग प्राप्त करते हैं । वे स्व - सुखानुगामी हनन, छेदन और कर्तन करते हैं ।
[४१६] वे असंयती यह कार्य मन, वचन और अन्त में काया से, स्व-पर या द्विविध करते हैं ।
[४१७] वैरी वैर करता है तत्पश्चात् वैर में राग करता है । आरम्भ पाप की ओर ले जाते हैं । अनमें दुःख स्पर्श होता है ।
[४१८] आर्त रूप दुष्कृतकर्मी सम्पराय प्राप्त करते हैं । राग-द्वेष के आश्रित वे अज्ञानी बहुत पाप करते हैं ।
[४१९] यह अज्ञानियों का सकर्मवीर्य प्रवेदित किया । अब पंडितों का अकर्म वीर्य मुझसे सुनो ।
[ ४२० ] बन्धन मुक्त एवं बन्धन - छिन्न द्रव्य है । सर्वतः पाप कर्म से विहीन भिक्षु अन्ततः शल्य को काट देता है ।
[४२१] नैर्यात्रिक/मोक्षमार्गी स्वाख्यात को सुनकर चिन्तन करे । दुःखपूर्ण आवासों को तो ज्यों-ज्यों भोगा जाएगा, त्यों-त्यों अशुभतत्व होगा ।
[४२२] निस्सन्देह स्थानी (मोक्ष - मार्गी) अपने विविध स्थानों का त्याग करेंगे । ज्ञातिजनों एवं मित्रों के साथ यह वास अनित्य है ।
[ ४२३] ऐसा चिन्तन कर मेघावी स्वयं को गृद्धता से उद्धरित करे । सर्वधर्मों में निर्मल आर्य धर्म को प्राप्त करे ।
[४२४] धर्म-सार को अपनी सन्मति से जानकर अथवा सुनकर समुपस्थित / प्रयत्नशील अनगार पाप का प्रत्याख्यानी होता है ।
[ ४२५] अपने आयुक्षेम का जो उपक्रम है, उसे जाने, तत्पश्चात् पण्डित शीघ्र शिक्षा ग्रहण करे ।
[ ४२६] जैसे कुछआ अपने अंगों को अपनी देह में समाहित कर लेता है वैसे ही आत्मा को पापों से अध्यात्म में ले जाना चाहिये ।
[४२७] [मुनि ] हाथ, पैर, मन, सर्व-इन्द्रियों, पाप परिणाम एवं भाषा दोष को संयत
करे |
[ ४२८] ज्ञानी उस दोष को जानकर किञ्चित् भी मान और माया न करे । वह स्नेहउपशान्त होकर विचरण करे ।
[४२९] प्राणों का अतिपात न करे, अदत्त भी न ले एवं माया - मृषावाद न करे । यही वृषीमत (जितेन्द्रिय) का धर्म है ।
[४३०] वचन का अतिक्रमण न करे, मन से भी इच्छा न करे । सर्वतः संवृत और दान्त होकर आदान को तत्परता से संयत करे ।
[ ४३१] आत्म गुप्त, जितेन्द्रिय कृत्, कारित और किये जाने वाले सभी पापों का अनुमोदन नहीं करते हैं ।
[४३२] जो अबुद्ध महानुभाव वीर एवं असम्यकत्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम अशुद्ध