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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद १७६ प्राणियों एवं भूतों को वश में करने वाले मंत्रों का अध्ययन करते हैं । [४१५] मायावी माया करके काम भोग प्राप्त करते हैं । वे स्व - सुखानुगामी हनन, छेदन और कर्तन करते हैं । [४१६] वे असंयती यह कार्य मन, वचन और अन्त में काया से, स्व-पर या द्विविध करते हैं । [४१७] वैरी वैर करता है तत्पश्चात् वैर में राग करता है । आरम्भ पाप की ओर ले जाते हैं । अनमें दुःख स्पर्श होता है । [४१८] आर्त रूप दुष्कृतकर्मी सम्पराय प्राप्त करते हैं । राग-द्वेष के आश्रित वे अज्ञानी बहुत पाप करते हैं । [४१९] यह अज्ञानियों का सकर्मवीर्य प्रवेदित किया । अब पंडितों का अकर्म वीर्य मुझसे सुनो । [ ४२० ] बन्धन मुक्त एवं बन्धन - छिन्न द्रव्य है । सर्वतः पाप कर्म से विहीन भिक्षु अन्ततः शल्य को काट देता है । [४२१] नैर्यात्रिक/मोक्षमार्गी स्वाख्यात को सुनकर चिन्तन करे । दुःखपूर्ण आवासों को तो ज्यों-ज्यों भोगा जाएगा, त्यों-त्यों अशुभतत्व होगा । [४२२] निस्सन्देह स्थानी (मोक्ष - मार्गी) अपने विविध स्थानों का त्याग करेंगे । ज्ञातिजनों एवं मित्रों के साथ यह वास अनित्य है । [ ४२३] ऐसा चिन्तन कर मेघावी स्वयं को गृद्धता से उद्धरित करे । सर्वधर्मों में निर्मल आर्य धर्म को प्राप्त करे । [४२४] धर्म-सार को अपनी सन्मति से जानकर अथवा सुनकर समुपस्थित / प्रयत्नशील अनगार पाप का प्रत्याख्यानी होता है । [ ४२५] अपने आयुक्षेम का जो उपक्रम है, उसे जाने, तत्पश्चात् पण्डित शीघ्र शिक्षा ग्रहण करे । [ ४२६] जैसे कुछआ अपने अंगों को अपनी देह में समाहित कर लेता है वैसे ही आत्मा को पापों से अध्यात्म में ले जाना चाहिये । [४२७] [मुनि ] हाथ, पैर, मन, सर्व-इन्द्रियों, पाप परिणाम एवं भाषा दोष को संयत करे | [ ४२८] ज्ञानी उस दोष को जानकर किञ्चित् भी मान और माया न करे । वह स्नेहउपशान्त होकर विचरण करे । [४२९] प्राणों का अतिपात न करे, अदत्त भी न ले एवं माया - मृषावाद न करे । यही वृषीमत (जितेन्द्रिय) का धर्म है । [४३०] वचन का अतिक्रमण न करे, मन से भी इच्छा न करे । सर्वतः संवृत और दान्त होकर आदान को तत्परता से संयत करे । [ ४३१] आत्म गुप्त, जितेन्द्रिय कृत्, कारित और किये जाने वाले सभी पापों का अनुमोदन नहीं करते हैं । [४३२] जो अबुद्ध महानुभाव वीर एवं असम्यकत्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम अशुद्ध
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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