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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
(अध्ययन-७ कुशीलपरिभाषित ) [३८१] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, तृण, बीज और त्रस प्राणी अण्डज, जरायुज, संस्वेदज और रसज यह जीव समूह है ।
[३८२] इसे जीवनिकाय कहते हैं । इन्हें जानो एवं इनकी साता को देखो । इन कायों का घात करने वाला पुनः पुनः विपर्यास प्राप्त करता है ।
[३८३] त्रस और स्थावर जीवों के जातिपथ/विचरणमार्ग में प्रवर्तमान मनुष्य घात करता है । वह अज्ञानी नाना प्रकार के क्रूर कर्म करता हुआ उसी में निमग्न रहता है ।
[३८४] वे प्राणी इस लोक में या परलोक में, तदरूप में या अन्य रूप में, संसार में आगे से आगे परिभ्रमण करते हुए दुष्कृत का बन्धन एवं वेदन करते हैं ।
_ [३८५] जो श्रमणव्रती माता-पिता का त्याग अग्नि का समारम्भ करता है एवं आत्मसुख के लिए प्राणिघात करता है, वह लोक में कुशीलधर्मी कहा गया है ।
[३८६] प्राणियों का अतिपात अग्नि ज्वालक भी करता है एवं निर्वापक भी । अतः मेघावी पण्डित धर्म का समीक्षण कर अग्नि-समारम्भ न करे ।
[३८७] पृथ्वी भी जीव है और जल भी जीव है । सम्पतिम प्राणी गिरते हैं । संस्वेदज व काष्ठाश्रित भी जीव हैं, अतः अग्नि-समारम्भक इन जीवों का दहन करता है ।
[३८८] हरित जीव आकार धारण करते हैं । वे आहार से उपचित एवं पृथक्-पृथक् हैं । जो आत्म-सुख के लिए इनका छेदन करता है, वह धृष्टप्रज्ञ अनेक जीवों का हिंसक है ।
[३८९] उत्पत्ति, वृद्धि और बीजों का विनाशक असंयत और आत्म-दंडी है । जो आत्म-सुख के लिए बीजों को नष्ट करता है, वह अनार्यधर्मी कहा गया है ।
[३९०] कुछ जीव गर्भ में, बोलने, न बोलने की आयु में पंचशिखी कुमारावस्था में मर जाते हैं, तो कुछ युवा, प्रौढ़ और वृद्धावस्था में आयु-क्षय होने पर च्युत हो जाते हैं ।
[३९१] अतः हे जीवों ! मनुष्यत्व-सम्बोधि प्राप्त करो । भय को देखकर अज्ञान को छोड़ो । यह लोक ज्वर से एकान्त दुःख रूप है । [जीव] स्वकर्म से विपर्यास पाता है ।
[३९२] इस संसार में कई मूढ़ आहार में नमकवर्जन से मोक्ष कहते हैं । कुछ शीतल जल-सेवन से और कुछ हवन से मोक्षप्राप्ति कहते हैं ।
[३९३] प्रातः स्नानादि से मोक्ष नहीं है, न ही क्षार-लवण के अनशन से है । वे मात्र मद्य, मांस और लहसुन न खाकर अन्यत्र निवास (अमोक्ष) की कल्पना करते हैं ।
[३९४] [व] सायं और प्रातः जल स्पर्शन कर जल से सिद्धि निरूपित करते हैं। पर यदि जल-स्पर्श से सिद्धि प्राप्त हो जाती तो अनेक जलचर प्राणी सिद्ध हो जाते ।
[३९५] मत्स्य, कूर्म, जल सर्प, बतख, उद्विलाव और जल-राक्षस जल जीव है । जो जल से सिद्धि प्ररूपित करते हैं उन्हें कुशल-पुरुष ‘अयुक्त' कहते हैं ।
[३९६] यदि जल कर्म-मलका हरण करता है तो शुभ का भी हरण करेगा, अतः यह बात इच्छाकल्पित है । मन्द लोग अन्धे की तरह अनुसरण कर प्राणों का ही नाश करते हैं
[३९७] यदि पापकर्मी का पाप शीतल जल हरण कर लेता हैं तो जल जीवों के वधिक भी मुक्त हो जाते ! अतः जलसिद्धिवादी असत्य बोलते हैं ।
[३९८] जो सायं एवं प्रातः अग्नि स्पर्श करते हुए हवन से सिद्धि कहते हैं, पर यदि