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सूत्रकृत-१/६/-/३६४
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[३६४] वह नगेन्द्र पृथ्वी के मध्य स्थित है, सूर्य की तरह शुद्ध लेश्या व्यक्त करता है । वह अपने श्रेय से विविध वर्णीय, मनोरम है और रश्मिमालवत् प्रकाशित हो रहा है ।
[३६५] सुदर्शन पर्वत का यश पर्वतों में श्रेष्ठ कहा जाता है । इसकी उपमा में ज्ञातपुत्र श्रमण, जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील से श्रेष्ठता में उपमित है ।
[३६६] जैसे ऊँचे पर्वतों में निपध तथा वलयाकार पर्वतों में रुचक श्रेष्ठ है । वैसे ही जगत में भूतिप्रज्ञ प्राज्ञ मुनियों के मध्य श्रेष्ठ है ।
[३६७] उन्होंने अनुत्तर धर्म प्ररुपित कर अनुत्तर एवं श्रेष्ठ ध्यान ध्याया । जो सुशुक्ल फेन की तरह शुक्ल शंख एव चन्द्रमा की तरह एकांत शुद्ध/शुक्ल है ।
[३६८] महर्षि ज्ञात पुत्र ने ज्ञान, शील और दर्शन-बल से समस्त कर्म-विशोधन कर अनुत्तर तथा सादि अनन्त सिद्ध गति को प्राप्त किया ।
[३६९] जैसे वृक्षों में शाल्मली श्रेष्ठ है, जहाँ सुपर्णकुमार रति का अनुभव करते हैं तथा. जैसे वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ कहा गया है वैसे ही भूतिप्रज्ञ ज्ञान और शील में श्रेष्ठ है ।
[३७०] जैसे शब्दों में मेघगर्जन अनुत्तर है, तारागण में चन्द्र महानुभाव/श्रेष्ठ है, गन्धों में चन्दन श्रेष्ठ है वैसे ही मुनियों में अप्रतिज्ञ श्रेष्ठ है ।
[३७१] जैसे समुद्रों में स्वयम्भू, नागों में धरनेन्द्र और रसों में इक्षु-रस श्रेष्ठ है वैसे ही तपस्वियों में ज्ञात पुत्र श्रेष्ठ है ।
[३७२] जैसे हाथियों में ऐरावत, मृगों में सिंह, नदियों में गंगा, पक्षियों में वेणुदेव एवं गरुड़ श्रेष्ठ है वैसे ही निर्वाणवादियों में ज्ञात पुत्र श्रेष्ठ है ।
[३७३] जैसे योद्धाओं में विश्वसेन, पुष्पों में अरविन्द, क्षत्रियों में दंतवक्त्र (चक्रवर्ती) श्रेष्ठ है वैसे ही कृषियों में वर्धमान श्रेष्ठ है ।
[३७४] जैसे दानों में अभयदान श्रेष्ठ है, सत्यवचनों में निष्पाप सत्य, तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम है, वैसे ही श्रमण ज्ञात पुत्र लोकोत्तम है ।
[३७५] जैसे स्थिति (आयु) में लव सप्तमदेव श्रेष्ठ है, सभाओं में सुधर्म सभा श्रेष्ठ है वैसे ही ज्ञातपुत्र से श्रेष्ठ कोई ज्ञानी नहीं है ।
[३७६] वे आशुप्रज्ञ पृथ्वीतुल्य थे, विशुद्ध थे और अनासक्त थे उन्होंने संग्रह नहीं किया । उन अभयंकर, वीर और अनन्त चक्षु ने संसार महासागर को तैरकर (मुक्ति पायी)।
[३७७] वे क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार अध्यात्म दोषों को त्यागकर न पापाचरण करते थे, न करवाते थे ।
[३७८] ज्ञात पुत्र ने क्रिया, अक्रिया, वैनायिक और अज्ञानवाद के पक्ष की प्रतीति की । इस तरह सभी वादों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर आजीवन संयम में उपस्थित रहे ।
[३७९] उस उपधान वीर्य ने दुःख-क्षयार्थ रात्रि भोजन सहित स्त्री संसर्ग का वर्जन किया । इह लोक और परलोक को जानकर सर्ववर्जी ज्ञातपुत्र ने पापों का सर्वथा त्याग किया।
[३८०] समाहित अर्थ और पद से विशुद्ध अर्हद-भाषित धर्म को सुन, उसे श्रद्धा पूर्वक ग्रहण कर मनुष्य मुक्त होंगे, देवाधिपति इन्द्र होंगे । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-६ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण