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________________ सूत्रकृत - १/२/१/९७ १५७ भोजन करता है, तथापि वह माया आदि के कारण अनंत बार गर्भ में आता रहता है । [९८] हे पुरुष ! मनुष्य जीवन के अन्त तक पाप कर्म से उपरत रह । यहाँ आसक्त तथा काम-मूर्छित, असंस्कृत - पुरुष मोह को प्राप्त होते हैं । [९९] हे योगी ! तू यतना करता हुआ विचरण कर । मार्ग सूक्ष्म प्राणियों से अनुप्राणित है । तू महावीर द्वारा सम्यक्प्ररूपित अनुशासन में पराक्रम कर । [१००] वीर, संयम उद्यत, विरत क्रोधादिकषाय-नाशक, पाप से विरत अभिनिवृत्त पुरुष किसी भी प्राणी का घात नहीं करता । [१०१] इस संसार में केवल मैं ही लुप्त नहीं होता, अपितु लोक में दूसरे प्राणी भी लुप्त होते हैं । इस प्रकार साधक आत्मौपम्य सहित देखता है । पीड़ा स्पर्श होने पर डरे नहीं, सहन करे । [१०२] साधक कर्म - लेप को धुने । देह को अनशन / उपवासादि से कृश करे । अहिंसा में प्रव्रजन करे । यही श्रमण महावीर द्वारा प्ररूपित अनुधर्म है । [१०३] जैसे पक्षिणी धूल से अनुगुष्ठित होने पर अपने को कंपित कर धूल को झाड़ देती है, वैसे ही द्रव्य उपधानवान तपस्वी ब्राह्मण कर्मो को क्षीण करता है । [ १०४ ] अनगारत्व की एषणाके लिए उपस्थित एवं श्रमणोचित स्थान में स्थित तपस्वी पुरुष को चाहे बच्चे और बूढ़े सभी प्रार्थना कर ले, किन्तु वे उसे गृहस्थ जीवन में वापस नहीं बुला सकते । [१०५] यदि वे उस श्रमण के समक्ष करुण विलाप कर आकर्षित करना चाहे, तो भी वे साधना में उद्यत उस भिक्षु को समझाकर गृहस्थ में नहीं ले जा सकते । [१०६ ] चाहे वे उस श्रमण को काम भोगों के लिए आमंत्रित करे या बाँधकर घर ले आए, पर जो जीवन की इच्छा नहीं करता उसे समझाकर गृहस्थ में नहीं ले जा सकते । [१०७] ममत्व दिखाने वाले उसके माता-पिता और पुत्री - पत्नी आदि सभी श्रमण को शिक्षा देते हैं- तुम दूरदर्शी हो, अतः हमारा पोषण करो, अन्यथा परलोक का पोषण कैसे होगा ? [१०८ ] अन्य पुरुष अन्य में मूर्छित होते हैं । वे असंस्कृत - पुरुष मोह को प्राप्त करते हैं । विषम को ग्रहण करने वाले पुनः पाप को संचय करते हैं । [१०९] इसलिए पंडित अभिनिवृत - पुरुष - साधक पाप कर्म से विरत बने । इस विषमता को देखकर वीर पुरुष ध्रुव की यात्रा कराने वाले महापथ-सिद्धिपथ पर प्रणत होते हैं । [११०] मन-वचन काया से संवृत- पुरुष वैतालीय मार्ग पर उपस्थित रहे । धन, स्वजन और हिंसा का त्याग करे । सुसंस्कृत होकर विचरण करे । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - २ उद्देशक - २ [१११] मुनि रज सहित काया के स्वामित्व का त्याग करता है । यह सोचकर मुनि मद न करे । ब्राह्मण द्वारा अन्य गोत्रों की उपेक्षा मूलक आकांक्षा अश्रेयस्कर है । [११२] जो दूसरो लोगों को पराभूत करता है, वह संसार में महत्- परिभ्रमण करता है । पराभव की आकांक्षा पौप-जनक है । यह जानकर मुनि मद न करे ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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