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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद [८३] इस लोक में त्रस अथवा स्थावर जितने भी प्राणी हैं, यह उनकी पर्याय है। जिससे प्राणी कभी त्रस और कभी स्थावर होते हैं । १५६ [८४] जगत् में योग / अवस्था उदार है, किन्तु विपर्यास में प्रलीन हो अवस्थाएँ इंद्रिय प्रत्यक्ष हैं । सभी प्राणी दुःख से आक्रांत हैं । इसलिए सभी अहिंस्य हैं । [८५] ज्ञानी होने का सार यही है कि वह किसी की हिंसा न करे । समता ही अहिंसा है । इतना ही उसे जानना चाहिए । [ ८६] वह व्युषित / निर्मल रहे, गृद्धिमुक्त बने, आत्मा का संरक्षण करे । चर्या, आसन, शय्या और आहार- पानी के सम्बन्ध में जीवन - पर्यन्त [ प्रयत्नशील रहे ।] [८७] मुनि [चर्या, आसन-शयन एवं भक्तपान] इन तीन स्थानों में सतत संयत रहे । वह उत्कर्ष / मान, ज्वलन/क्रोध, नूम/माया, मध्यस्थ / लोभ का परिहार करे । [८] साधु समितियों से संयुक्त, पाँच संवरों से संवृत, आबद्ध पुरुषों में अप्रतिबद्ध होकर अन्तिम समय तक मोक्ष के लिए पखिजन करे । ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन - १ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन-२ वैतालिक उद्देशक - १ 1 [९] सम्बोधि प्राप्त करो । बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? परलोक में सम्बोधि दुर्लभ है । बीती हुई रात्रियाँ लौटकर नहीं आती । संयमी जीवन पुनः सुलभ नहीं है । [१०] देखो ! बालक, वृद्ध और गर्भस्थ शिशु भी जीवनच्युत हो जाते हैं । जैसे बाज बटेर का हरण कर लेता है, वैसे ही आयु क्षय हो जाने पर जीवन - सूत्र टूट जाता है । [११] वह कदाचित माता-पिता से पहले ही मर जाता है । परलोक में सुगति सुलभ विराम ले । 1 नहीं होती है । इन भय-स्थलों को देख कर व्रती पुरुष हिंसा से [१२] इस जगत में सभी जन्तु अलग-अलग हैं । वे प्राणी कर्मों के कारण लिप्त हैं । वे स्वकृत क्रियाओं के द्वारा कर्म ग्रहण करते हैं । वे कर्मों का फल स्पर्श किए बिना छूट नहीं सकते । [९३] देवता, गन्धर्व, राक्षस, असुर, भूमिचर, सरीसृप, राजा, नगर-श्रेष्ठि और ब्राह्मणये सभी दुःख - पूर्वक अपने स्थानों से च्युत होते हैं । [१४] मृत्यु आने पर प्राणी काम भोग और सम्बन्धों को तोड़कर कर्म सहित चले जाते हैं । आयुष्य क्षय होने पर वे ताड़ फल की तरह टूटकर गिर जाते हैं । [ ९५] यदि कोई बहुश्रुत / शास्त्र - पारगामी हो या धार्मिक ब्राह्मण हो या भिक्षु, यदि वह मायामय - कृत्यों में मूर्च्छित होता है तो वह कर्मों द्वारा तीव्र पीड़ा प्राप्त करता है । [९६] देख ! सच्चा साधक विवेक में उपस्थित होकर, संयम में अवतरित होकर ध्रुव का भाषण करता है । कर्मो को छोड़कर कृत्य करता है, तो परम-लोक को कैसे नहीं जान पाएगा ? [ ९७] यद्यपि वह नग्न एवं कृश होकर विचरण करता है, मास-मास के अन्त में
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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