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________________ १४२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद उत्पन्न हुआ, उस दिन भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं विमानवासी देव और देवियों के आने-जाने से एक महान् दिव्य देवोद्योत हुआ, देवों का मेला-सा लग गया, देवों का कलकल नाद होने लगा, वहाँ का सारा आकाशमंडल हलचल से व्याप्त हो गया । तदनन्तर अनुत्तर ज्ञान-दर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर ने केवलज्ञान द्वारा अपनी आत्मा और लोक को सम्यक् प्रकार से जानकर पहले देवों को, तत्पश्चात् मनुष्यों को धर्मोपदेश दिया । तत्पश्चात् केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को भावना सहित पंच-महाव्रतों और षड्जीवनिकायों के स्वरूप का व्याख्यान किया । सामान्य-विशेष रूप से प्ररूपण किया। [५३६] 'भंते ! मैं प्रथममहाव्रत में सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान- करता हूँ। मैं सूक्ष्म-स्थूल और त्रस-स्थावर समस्त जीवों का न तो स्वयं प्राणातिपात करूँगा, न दूसरों से कराऊँगा और न प्राणातिपात करने वालों का अनुमोदन- करूँगा; मैं यावज्जीवन तीन करण से एवं मन-वचन-काया से इस पाप से निवृत्त होता हूँ । हे भगवान् ! मैं उस पूर्वकृत पाप (हिंसा) का प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ और गर्दा करता हूँ, अपनी आत्मा से पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ ।' उस प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएँ होती हैं पहली भावना यह है-निर्ग्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त होता है, ईर्यासमिति से रहित नहीं । केवली भगवान् कहते हैं- ईर्यासमिति से रहित निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन करता है, धूल आदि से ढकता है, दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है, या पीड़ित करता है । इसलिए निर्ग्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त होकर रहे, ईर्यासमिति से रहित होकर नहीं । दूसरी भावना यह है - मन को जो अच्छी तरह जानकर पापों से हटाता है, जो मन पापकर्ता, सावध है, क्रियाओं से युक्त है, आस्त्रवकारक है, छेदन-भेदनकारी है, क्लेश-द्वेषकारी है, परितापकारक है; प्राणियों के प्राणों का अतिपात करनेवाला और जीवों का उपघातक है, इस प्रकार के मन को धारण न करे । मन को जो भली-भाँति जान कर पापमय विचारों से दूर रखता है वही निर्ग्रन्थ है । जिसका मन पापों से रहित है। तृतीय भावना यह है - जो साधक वचन का स्वरूप भलीभाँति जान कर सदोषवचनों का परित्याग करता है, वह निर्ग्रन्थ है । जो वचन पापकारी, सावध, क्रियाओं से युक्त, यावत् जीवों का उपघातक है; साधु इस प्रकार के वचन का उच्चारण न करे । जो वाणी के दोषों को भलीभाँति जानकर सदोष वाणी का परित्याग करता है, वही निर्ग्रन्थ है । उसकी वाणी पापदोष रहित हो । चौथी भावना यह है - जो आदानभाण्डमात्रनिक्षेपण-समिति से युक्त है, वह निर्ग्रन्थ है । केवली भगवान् कहते हैं - जो निर्ग्रन्थ आदानभाण्डनिक्षेपणसमिति से रहित है, वह प्राणियों, भूतों, जीवों, और सत्त्वों का अभिघात करता है, यावत् पीड़ा पहुँचाता है । इसलिए जो आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपणासमिति से युक्त है, वही निर्ग्रन्थ है, जो आदानभाण्ड निक्षेपणसमिति से रहित है, वह नहीं । पाँचवी भावना यह है - जो साधक आलोकित पान-भोजन-भोजी होता है वह निर्ग्रन्थ होता है । अनालोकितपानभोजन-भोजी नहीं । केवली भगवान् कहते हैं - जो बिना
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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