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आचार-२/३/१५/-/५३५
मनः पर्यवज्ञान ज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपञ्चेन्द्रिय, व्यक्तमन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे । उधर श्रमण भगवान् महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन - सम्बन्धिवर्ग को प्रतिविसर्जित करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया कि "मैं आज से बारह वर्ष तक अपने शरीर का व्युत्सर्ग करता
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।" इस अवधि में दैविक, मानुषिक या तिर्यंच सम्बन्धी जो कोई भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सब समुत्पन्न उपसर्गों को मैं सम्यक् प्रकार से या समभाव से सहूँगा, क्षमाभाव रखूँगा, शान्ति से झेलूँगा ।" इस प्रकार का अभिग्रह धारण करने के पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं काया के प्रति ममत्व का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर दिन का मुहूर्त शेष रहते कर्मार ग्राम पहुँच गए |
उसके पश्चात् काया का व्युत्सर्ग एवं देहाध्यास का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर अनुत्तर वसति के सेवन से, अनुपम विहार से, एवं अनुत्तर संयम, उपकरण, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि, समिति, गुप्ति, कायोत्सर्गादि स्थान, तथा अनुपम क्रियानुष्ठान से एवं सुचरित के फलस्वरूप निर्वाण और मुक्ति मार्ग के सेवन आत्मा को प्रभावित करते हुए विहार करने लगे ।
युक्त होकर
इस प्रकार विहार करते हुए त्यागी श्रमण भगवान् महावीर को दिव्य, मानवीय और तिर्यंचसम्बन्धी जो कोई उपसर्ग प्राप्त होते, वे उन सब उपसर्गों के आने पर उन्हें अकलुषित, अव्यथित, अदीनमना एवं मन-वचन काया की त्रिविध प्रकार की गुप्तियों से गुप्त होकर सम्यक् प्रकार के समभावपूर्वक सहन करते, उपसर्गदाताओं को क्षमा करते, सहिष्णुभाव धरण करते तथा शान्ति और धैर्य से झेलते थे ।
श्रमण भगवान् महावीर को इस प्रकार से विचरण करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए, तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु में दूसरे मास और चौथे पक्ष से अर्थात् वैशाख सुदी में, दशमी के दिन, सुव्रत नामक दिवस में विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर, पूर्वगामिनी छाया होने पर दिन के दूसरे पहर में जृम्भकग्रामनगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर तट पर श्यामाकगृहपति के काष्ठकरण क्षेत्र में वैयावृत्यचैत्य के ईशानकोण में शालवृक्ष से न अति दूर, न अति निकट, उत्कटुक होकर गोदोहासन से सूर्य की आतापना लेते हुए, निर्जल षष्ठभक्त से युक्त, ऊपर घुटने और नीचा सिर करके धर्मध्यानयुक्त, ध्यानकोष्ठ में प्रविष्ट हुए जब शुक्लध्यानान्तरिका में प्रवर्तमान थे, तभी उन्हें अज्ञान दुःख से निवृत्ति दिलानेवाले, सम्पूर्ण प्रतिपूर्ण अव्याहत निरावरण अनन्त अनुत्तर श्रेष्ठ केवलज्ञानकेवलदर्शन उत्पन्न हुए ।
वे अब भगवान् अर्हत, जिन, ज्ञायक, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी हो गए । अब वे देवों, मनुष्यों, और असुरों सहित समस्त लोक के पर्यायों को जानने लगे । जैसे कि जीवों की आगति, गति, स्थिति, व्यवन, उपपात, उनके भुक्त और पीत सभी पदार्थों को तथा उनके द्वारा कृत प्रतिसेवित, प्रकट एवं गुप्त सभी कर्मों को तथा उनके द्वारा बोले हुए, कहे हुए तथा मन के भावों को जानते, देखते थे । वे सम्पूर्ण लोक में स्थित सब जीवों के समस्त भावों को तथा समस्त परमाणु पुद्गलों को जानते-देखते हुए विचरण करने लगे । जिस दिन श्रम भगवान् महावीर को अज्ञान - दुःख - निवृत्तिदायक सम्पूर्ण यावत् अनुत्तर केवलज्ञान- केवलदर्शन