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आचार-२/३/१५/-/५१०
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जन्म के बाद श्रमण भगवान् महावीर का लालन-पालन पांच धाय माताओं द्वारा होने लगा । जैसे कि क्षीरधात्री, मज्जनधात्री, मंडनधात्री, क्रीड़ाधात्री, और अंकधात्री । वे इस प्रकार एक गोद से दूसरी गोद में संहत होते हुए एवं मणिमण्डित रमणीय आंगन में (खेलते हुए) पर्वतीय गुफा में स्थित चम्पक वृक्ष की तरह कुमार वर्द्धमान क्रमशः सुखपूर्वक बढ़ने लगे।
भगवान महावीर बाल्यावस्था को पार कर युवावस्था में प्रविष्ट हुए । उनका परिणय सम्पन्न हुआ और वे मनुष्य सम्बन्धी उदार शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श से युक्त पांच प्रकार के कामभोगों का उदासीनभाव से उपभोग करते हुए त्यागभावपूर्वक विचरण करने लगे ।
[५११] श्रमण भगवान् महावीर के पिता काश्यप गोत्र के थे । उनके तीन नाम कहे जाते हैं, सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी । श्रमण भगवान महावीरकी माता वाशिष्ठ गोत्रीया थीं। उनके तीन नाम कहे जाते हैं, त्रिशला, विदेहदत्ता और प्रियकारिणी । चाचा ‘सुपार्श्व' थे, जो काश्यप गौत्र के थे । ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन थे, जो काश्यप गोत्रीय थे । बड़ी बहन सुदर्शना थी, जो काश्यप गोत्र की थी । पत्नी 'यशोदा' थी, जो कौण्डिन्य गोत्र की थी । पुत्री काश्यप गौत्र की थी । उसके दो नाम इस प्रकार कहे जाते हैं, जैसे कि -१. अनोज्जा, (अनवद्या) और २. प्रियदर्शना ।
श्रमण भगवंत महावीर की दौहित्री कौशिक गोत्र की थी । उसके दो नाम इस प्रकार कहे जाते हैं, जैसे कि- १. शेषवती तथा, २. यशस्वती ।
[५१२] श्रमण भगवान् महावीर के माता पिता पार्श्वनाथ भगवान् के अनुयायी थे, दोनों श्रावक-धर्म का पालन करने वाले थे । उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रावक-धर्म का पालन करके षड्जीवनिकाय के संरक्षण के निमित्त आलोचना, आत्मनिन्दा, आत्मगर्दा एवं पाप दोषों का प्रतिक्रमण करके, मूल और उत्तर गुणों के यथायोग्य प्रायश्चित स्वीकार करके, कुश के संस्तारक पर आरूढ़ होकर भक्तप्रत्याख्यान नामक अनशन स्वीकार किया । आहार-पानी का प्रत्याख्यान करके अन्तिम मारणान्तिक संलेखना से शरीर को सुखा दिया । फिर कालधर्म का अवसर आने पर आयुष्य पूर्ण करे उस शरीर को छोड़कर अच्युतकल्प नामक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुए । तदनन्तर देव सम्बन्धी आयु, भव, (जन्म) और स्थिति का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में चरम श्वासोच्छ्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिवृत होंगे और वे सब दुःखों का अंत करेंगे ।
[५१३] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर, जो कि ज्ञातपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे, ज्ञातकुल से विनिवृत्त थे, देहासक्ति रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय थे, विदेहदत्ता के पुत्र थे, सुकुमार थे । भगवान् महावीर तीस वर्ष तक विदेह रूप में गृह में निवास करके माता-पिता के आयुष्य पूर्ण करके देवलोक को प्राप्त हो जाने पर अपनी ली हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने से, हिरण्य, स्वर्ण, सेना, वाहन, धन, धान्य, रत्न, आदि सारभूत, सत्वयुक्त, पदार्थों का त्याग करके याचकों को यथेष्ट दान देकर, अपने द्वारा दानशाला पर नियुक्त जनों के समक्ष सारा धन खुला करके, उस दान रूप में देने का विचार प्रकट करके, अपने सम्बन्धिजनों में सम्पूर्ण पदार्थों का यथायोग्य विभाजन, करके, संवत्सर दान देकर हेमन्तऋतु के प्रथम मास एवं प्रथम मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष में, दशमी के दिन