________________
१३२
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
( अध्ययन-१२ रूप सप्तिका-(५)) [५०५] साधु या साध्वी अनेक प्रकार के रूपों को देखते हैं, जैसे - गूंथे हुए पुष्पों से निष्पन्न, वस्त्रादि से वेष्टित या निष्पन्न पुतली आदि को, जिनके अन्दर कुछ पदार्थ भरने से आकृति बन जाती हो, उन्हें, संघात से निर्मित चोलकादिकों, काष्ठ कर्म से निर्मित, पुस्तकर्म से निर्मित, चित्रकर्म से निर्मित, विविध मणिकर्म से निर्मित, दंतकर्म से निर्मित, पत्रछेदन कर्म से निर्मित, अथवा अन्य विविध प्रकार के वेष्टनों से निष्पन्न हुए पदार्थों को तथा इसी प्रकार के अन्य नाना पदार्थों के रूपों को, किन्तु इनमें से किसी को आँखों से देखने की इच्छा से साधु या साध्वी उस ओर जाने का मन में विचार न करे ।
इस प्रकार जैसे शब्द सम्बन्धी प्रतिमा का वर्णन किया गया है, वैसे ही यहाँ चतुर्विध आतोद्यवाद्य को छोड़कर रूपप्रतिमा के विषय में भी जानना चाहिए।
(अध्यययन-१३ परक्रिया-सप्तिका-६-) [५०६] पर (गृहस्थ के द्वारा) आध्यात्मिकी मुनि के द्वारा कायव्यापाररूपी क्रिया (सांश्लेषिणी) कर्मबन्धन जननी है, (अतः) मुनि उसे मन से भी न चाहे, न उसके लिए वचन से कहे, न ही काया से उसे कराए ।
कदाचित् कोई गृहस्थ धर्म-श्रद्धावश मुनि के चरणों को वस्त्रादि से थोड़ा-सा पोंछे अथवा बार-बार पोंछे कर, साधु उस परक्रिया को मन से न चाहे तथा वचन और काया से भी न कराए ।
कदाचित् कोई गृहस्थ मुनि के चरणों को सम्मर्दन करे या दबाए तथा बार-बार मर्दन करे या दबाए, यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को फूंक मारने हेतु स्पर्श करे, तथा रंगे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से कराए ।
यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को तेल, घी या चर्बी से चुपड़े, मसले तथा मालिश करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन व काया से उसे कराए ।
कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के चरणों को लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण से उबटन करे अथवा उपलेप करे तो साधु मन से भी उसमें रस न ले, न वचन एवं काया से उसे कराए।
कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के चरणों को प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से प्रक्षालन करे अथवा अच्छी तरह से धोए तो मुनि उसे मन से न चाहे, न वचन और काया से कराए । यदि कोई, गृहस्थ साधु के पैरों का इसी प्रकार के किन्हीं विलेपन द्रव्यों से एक बार या बार-बार आलेपन-विलेपन करे तो साधु उसमें मन से भी रूचि न ले, न ही वचन और शरीर से उसे कराए ।
यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में लगे हुए खूटे या कांटे आदि को निकाले या उसे शुद्ध करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए ।
यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में लगे रक्त और मवाद को निकाले या उसे निकाल कर शुद्ध करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए ।
यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर को एक या बार-बार पोंछकर साफ करे तो साधु उसे