SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार-२/१/४/१/४६६ १०९ (अध्ययन-४ भाषाजात) उद्देशक-१ [४६६] संयमशील साधु या साध्वी इन वचन (भाषा) के आचारों को सुनकर, हृदयंगम करके, पूर्व-मुनियों द्वारा अनाचरित भाषा-सम्बन्धी अनाचारों को जाने । जो क्रोध से वाणी का प्रयोग करते हैं जो अभिमानपूर्वक, जो छल-कपट सहित, अथवा जो लोभ से प्रेरित होकर वाणी का प्रयोग करते हैं, जानबूझकर कठोर बोलते हैं, या अनजाने में कठोर वचन कह देते हैं -ये सब भाषाएं सावध हैं, साधु के लिए वर्जनीय हैं । विवेक अपनाकर साधु इस प्रकार की सावध एवं अनाचरणीय भाषाओं का त्याग करे । वह साधु या साध्वी ध्रुव भाषा को जान कर उसका त्याग करे. अध्रव भाषा को भी जान कर उसका त्याग करे । 'वह अशनादि आहार लेकर ही आएगा, या आहार लिए बिना ही आएगा, वह आहार करके ही आएगा, या आहार किये बिना ही आ जाएगा, अथवा वह अवश्य आया था या नहीं आया था, वह आता हैं, अथवा नहीं आता है, वह अवश्य आएगा, अथवा नहीं आएगा; वह यहाँ भी आया था, अथवा वह यहाँ नहीं आया था; वह यहाँ अवश्य आता है, अथवा कभी नहीं आता. अथवा वह यहाँ अवश्य आएगा या कभी नहीं आएगा। संयमी साधु या साध्वी विचारपूर्वक भाषा समिति से युक्त निश्चितभाषी एवं संयत होकर भाषा का प्रयोग करे । जैसे कि यह १६ प्रकार के वचन है-एकवचन, द्विवचन, बहुवचन, स्त्रीलिंग-कथन, पुल्लिंग-कथन, नपुंसकलिंग-कथन, अध्यात्म-कथन, उपनीत-कथन, अपनीत कथन, अपनीताऽपनीत कथन, अपनीतोपनीत कथन, अतीतवचन, वर्तमानवचन, अनागत वचन प्रत्यक्षवचन और परोक्षवचन । यदि उसे 'एकवचन' बोलाना हो तो वह एकवचन ही बोले, यावत् परोक्षवचन पर्यन्त जिस किसी वचन को बोलना हो, तो उसी वचन का प्रयोग करे । जैसे – यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह नपुंसक है, यह वही है या यह कोई अन्य है, इस प्रकार जब विचारपूर्वक निश्चय हो जाए, तबी निश्चयभाषी हो तथा भाषा-समिति से युक्त होकर संयत भाषा में बोले । इन पूर्वोक्त भाषागत दोष-स्थानों का अतिक्रमण करके (भाषाप्रयोग करना चाहिए) । साधु को भाषा के चार प्रकारों को जान लेना चाहिए । सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा - (व्यवहारभाषा) नाम का चौथा भाषाजात है । जो मैं यह कहता हूँ उसे - भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर भगवान् हो चुके हैं, वर्तमान में जो भी तीर्थंकर भगवान् हैं और भविष्य में जो भी तीर्थंकर भगवान् होंगे, उन सबने इन्हीं चार प्रकार की भाषाओं का प्रतिपादन किया है, प्रतिपादन करते हैं और प्रतिपादन करेंगे अथवा उन्होंने प्ररूपण किया है, प्ररूपण करते हैं और प्ररूपण करेंगे । तथा यह भी उन्होंने प्रतिपादन किया है कि ये सब भाषाद्रव्य अचित्त हैं, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शवाले हैं, तथा चय-उपचय वाले एवं विविध प्रकार के परिणमन धर्मवाले हैं । [४६७] संयमशील साधु-साध्वी को भाषा के सम्बन्ध में यह भी जान लेना चाहिए कि बोलने से पूर्व भाषा अभाषा होती है, बोलते समय भाषा भाषा कहलाती है बोलने के पश्चात् बोली हुई भाषा अभाषा हो जाती है ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy