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________________ श्री धर्मनाथ भगवान चैत्यवंदन । भानुनंदन धर्मनाथ, सुव्रता भली मात; वज्र लंछन वज्री नमे, त्रण भुवन विख्यात. १ दश लाख वरसनु आउखुं, वपु धनुष पिस्तालीस; रत्नपुरीनो राजीयो, जगमां जास जगीस. धर्म मारग जिनवर कहे ए, उत्तम जन आधार; । तिणे तुज पाद पद्मतणी, सेवा करुं निरधार. ३। स्तवन धर्म जिनेश्वर! गाउं रंगशुं, भंग म पडशो हो प्रीत जिनेश्वर! बीजो मनमंदिर आणुं नहि, ए अम कुलवट रीत जिनेश्वर! धर्म०१ धर्म धर्म करतो जग सहु फिरे, धर्म न जाणे हो मर्म जिने० धर्म जिनेश्वर चरण ग्रयां पछी, कोई न बांधे हो कर्म जिने धर्म०२ प्रवचन अंजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान जिने । हृदय नयण निहाळे जगधणी, महिमा मेरु समान जिने० दोडत दोडत दोडत दोडियो, जेती मननी रे दोड जिने । प्रेम प्रतीत विचारो ढूंकडी,गुरुगम लेजो रे जोड जिने । धर्म०४ एक पखी किम प्रीति परवडे, उभय मिल्या हुए संध जिने । हं रागी हुं मोहे फंदियो, तुं नीरागी निरबंध जिने । परम निधान प्रगट मुख आगळे, जगत उल्लंघी हो जाय जिने० ज्योति विना जुओ जगदीशनी, अंधोअंध पलाय जिने० धर्म०६ निर्मळ गुण मणि रोहण भूधरा, मुनिजन मानस हंस जिने० धन्य ते नगरी, धन्य वेला घडी, मात पिता कुलवंश जिने० धर्म० ७ मनमधुकर वर कर जोडी कहे, पदकज निकट निवास जिने । घननामी आनंदघन सांभळो, ए सेवक अरदास जिने० । धर्म०८ धर्म०३ धर्म०५ स्तुति धरम धमर धोरी, कर्मना पास तोरी; केवल श्री जोरी, जेह चोरे न चोरी; दर्शन मद छोरी, जाय भाग्या सटोरी; नमे सुरनर कोरी, ते वरे सिद्धि गोरी
SR No.009725
Book TitleAradhana Ganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaysagar
PublisherSha Hukmichandji Medhaji Khimvesara Chennai
Publication Year2011
Total Pages174
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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