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जाता; सिद्धात्माओं में तो शुद्ध चेतना के जो अनंत-ज्ञान, अनंत-दर्शन, अनंतसुखादि स्वगुण हैं, वे ही गुण पाए जाते हैं।
सभी संसारी आत्माएँ देह और आत्मरूप होती हैं जबकि सभी सिद्धात्माएँ मात्र आत्मरूप होती हैं।
संसारी आत्माएँ अशुद्ध, अबुद्ध और बद्ध होती हैं, जबकि सभी सिद्धात्माएँ पूर्णतः शुद्ध, बुद्ध और मुक्त होती हैं।
नामकर्म के उदय के परिणाम स्वरूप सभी संसारी आत्माएँ सशरीरी होती हैं जबकि नामकर्म के क्षय परिणाम स्वरूप सिद्धात्माएँ अशरीरी होती हैं।
सिद्धात्माएँ अमूर्त होने के कारण सिद्धालय में एक दूसरे में ज्योति में ज्योति की तरह रहती है; मगर हर एक आत्मा का अस्तित्व तो स्वतंत्र ही रहता है। सिद्ध होने के पूर्व की अवस्था की अपेक्षा से सिद्धों के १५ भेद
(१) तीर्थ-सिद्ध- तीर्थंकर भगवंत के द्वारा संस्थापित चतुर्विध संघ और प्रथम गणधर भगवंत तीर्थ कहलाते हैं। इस प्रकार के तीर्थ की मौजूदगी में जो आत्माएँ सिद्ध होती हैं; वे तीर्थ सिद्ध कहलाती हैं।
(२) अतीर्थ सिद्ध- उपरोक्त तीर्थ की उत्पत्ति से पूर्व अथवा तीर्थ का विच्छेदन होने पर जो आत्में सिद्ध बनती हैं, वे अतीर्थ-सिद्ध कहलाती हैं। जैसेमरुदेवी माता तीर्थ की उत्पत्ति से पूर्व ही मोक्ष गई थी। भगवान् श्री सुविधिनाथ स्वामी जी से लेकर भगवान् श्री शांतिनाथ स्वामी जी तक आठ तीर्थंकर भगवंतों के अंतर-काल में सात वार तीर्थ को विच्छेद हुआ था; उस विच्दे काल में जो आत्माएँ सिद्ध बनीं, वे अतीर्थ-सिद्ध कहलाती हैं।
(३) तीर्थंकर-सिद्ध- जो आत्माएं तीर्थंकर पद भोग कर सिद्ध बनीं, वें तीर्थंकर सिद्ध कहलाती हैं।
(४) अतीर्थंकर सिद्ध- तीर्थंकर बने बिना यानि सामान्य केवली बनकर मोक्ष जाने वाली आत्माएँ अतीर्थंकर-सिद्ध कहलाती हैं।
(५) स्वयंबुद्धसिद्ध- जो स्वयं-किसी भी दूसरे के उपदेश और किसी बाह्य निमित्त के बिना तत्त्व को जानते हैं; संयम स्वीकारते हैं; और सकल कर्मों का क्षय करके सिद्धत्व को पाते हैं वे स्वयंबुद्ध-सिद्ध कहलाते हैं।
प्रार्थना यह प्रभु भक्ति का प्रथम चरण है.