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पर फेंकते हैं दौड़ाते हैं, लिटाते हैं, नारकियों के मांस के छोटे-छोटे टुकड़े करके
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भाड़ में चने की तरह भूनते हैं। वे असुर नारकियों को तप हुए सीसे, तांबे, रुधिरादि अशुचि पदार्थों से भरी हुई, उबलती वैतरणी नदी में डुबोते हैं, उन्हें तैरने के लिए विवश करते हैं। वे तपी हुई लौहमयी स्त्री से आलिंगन करवाते हैं आदि, विविध - विविध रीति से निरंतर दुःख ही दुःख देते रहते हैं।
नरक -गति में जाने योग्य जीव के लक्षण
जो घायइ सत्ताई, अलियं जंपेइ, परधणं हरइ । परदारं चिय बच्चइ, बहुपाप - परिग्गहासतो ।। चंडो माणी थद्धो, मायावी निठुरो खरो पावो । पिसुणो संगहसीलो, साहूण निंदओ अहम्मो ।। दुट्ठबुद्धी अणज्जो, बहुपावपरायणो कयग्धो य
बहुदुक्ख सोगपरओ, मरिउं निरयम्मि सो जाइ ।।
जो जीवों की हिंसा करता है, झूठ बोलता है, दूसरों के धन को चुराता है, परादारा गमन करता है, बहुत सारे पाप - कृत्य करता है, परिग्रह में आसक्त रहता है, ऐसा जीव मरकर नरक में जन्म लेता है।
क्रोधी, अभिमानी, स्तब्ध, मायावी, निष्ठुर-कर्कशभाषी खल, पापी, चुगलखोर, संग्रहशील, साधु-निंदक, अधर्मी, दुष्टबुद्धि, अनार्य, बहुत से पाप कार्यों में परायण, कृतघ्नी, बहुत दुःख और शोक करने वाला जीव प्रायः मरकर नरक में पैदा होता है। चउहिं ठाणेहिं जीवा नेरइयाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा - महारंभयाए । महापरिग्गहयाए। पंचिदियवहेणं कुणिमाहारेणं स्था. ४/४/३७३ ||
चार कारणों से जीव नरकगतिप्रायोग्य आयुष्य कर्म बाँधते हैं: (१) महारंभज्यादा से ज्यादा प्राणियों की हिंसा हो; तीव्र- कषायपूर्वक ऐसी प्रवृत्ति करना । (२) महापरिग्रह– बड़े पैमाने में पदार्थों पर प्रगाढ़ मूर्च्छा, ममता एवं आसक्ति से । (३) पंचेन्द्रिय वध— पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा से । (४) कुणिमाहार - मांसाहार से ।
चित्र विचित्र मनुष्य संसार
जैन- दर्शन जन्म की अपेक्षा से मनुष्य के दो भेद मानता है- (१) गर्भज मनुष्य, (२) संम्मूर्च्छिम मनुष्य ।
जो चीज पच जाती है वह ताकत देती है, नहीं तो रोग. धर्म भी