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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
आत्मा स्वभाव से अनादि निधन सुख स्वभाव वाला है। मेरा आत्मा ही * शुद्धात्मा है, इससे सारे रागादि भाव क्षय हो जाते हैं। मैं वीतराग विज्ञान मयी
केवलज्ञान स्वरूप, ममल स्वभावी भगवान आत्मा हूं। इस दृढ़ श्रद्धान सहित * अपने में अभय स्वस्थ रहने से सारे कर्म क्षय होकर निर्वाण की प्राप्ति होती
है। मोक्ष केवल एक अपने ही आत्मा की पर के संयोग रहित शुद्ध अवस्था का नाम है। उसका उपाय भी निश्चयनय से यही है कि अपने आत्मा का शुद्ध अनुभव किया जाये तथा श्री जिनेन्द्र परमात्मा या सिद्ध परमात्मा के समान ही अपने को माना जाये । जब ऐसा माना जायेगा तब अनादि की मिथ्या वासना, मिथ्या मान्यता का अभाव होगा।
अनादि से यही मिथ्या बुद्धि, मिथ्या मान्यता रही कि मैं नर नारकी तिर्यंच आदि पर्याय वाला हूं,यह शरीर ही मैं हूं,यह शरीरादि संयोग मेरे हैं, मैं इन सबका कर्ता हूं। सद्गुरु कृपा वीतराग देव की वाणी से अपने स्वरूप का बोध जागा, यह प्रतीति हुई कि मैं स्वयं भगवान आत्मा, सच्चिदानंद घन, परमब्रह्म परमात्मा हूं। मेरा स्वरूप सिद्ध परमात्मा के समान है, रंचमात्र भी कम नहीं है । मैं ममल स्वभावी, ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूं, ऐसा अपने स्वरूप का स्वाभिमान, बहुमान जागने से रागादि भाव और सब कर्मोदय विला जाते हैं, क्षय हो जाते हैं।
जो वह है सो मैं,जो मैंहूँ सो वह है, इस तरह जो योगी निरंतर अनुभव करता है, वही मोक्ष का साधक होता है।
अपने बांधे हुए कर्मों के फल को भोगता हुआ भी उस फल के भोगने में जो जीव राग-द्वेष को प्राप्त नहीं होता वह फिर कर्म को नहीं बांधता । शुद्धात्म स्वरूप के आश्रय से पहले बांधे हुए कर्म भी क्षय हो जाते हैं।
पूर्व अज्ञान दशा में जो शुभाशुभ कर्मों का बंध किया, उनको भोगते हुए भी, जो जीव निज शुद्धात्मा वीतराग चिदानंद परम स्वभाव रूप परमात्म
तत्त्व की भावना से उत्पन्न अतीन्द्रिय सुख रूप अमृत से तृप्त हुआ, जो * रागी-द्वेषी नहीं होता वह जीव फिर ज्ञानावरणादि कर्मों को नहीं बांधता है।
नये कर्मों के बंध का अभाव होने से प्राचीन कर्मों की निर्जरा ही होती है। यह * संवर पूर्वक निर्जरा ही मोक्ष का मूल है।
जो निर्विकल्प आत्म भावना से शून्य है वह शास्त्र को पढता हआ तथा तपश्चरण करता हुआ भी परमार्थ को नहीं जानता है । जो शास्त्र को पढ़कर
गाथा-५३४, ५३५********* भी विकल्प को नहीं छोड़ता और निश्चय से शुद्धात्मा को नहीं मानता, जो कि शुद्धात्म देव, देहरूपी देवालय में मौजूद है, उसे नहीं ध्याता वह मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है।
प्रश्न-शानी हायक किसे कहते हैं?
इसे समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंकमल सुभाव स उत्तं, कम्मं षिपिऊन सरनि संसारे। अनेय प्रकार सुदिट्ठी, कल लंक्रित कम्म राग विपनं च ॥५३४॥
अन्वयार्थ- (कमल सुभाव स उत्तं) कमल स्वभाव ज्ञायक उसे ही कहते हैं (कम्मं षिपिऊन सरनि संसारे) जिससे संसार में भ्रमण कराने वाले कर्म क्षय हो जावें (अनेय प्रकार सुदिट्टी) अनेक प्रकार की शुद्ध दृष्टि प्रगट हो जावे (कल लंक्रित कम्म राग षिपनं च) शरीर संबंधी सर्व कर्म व सर्व राग क्षय हो जावे।
विशेषार्थ- प्रफुल्लित, आनंदमय, निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्ध उपयोग ही आत्मा का कमल स्वभाव है। वह ज्ञानी ज्ञायक है, जिसके प्रताप से सर्व विभावभाव व सर्व कर्म गल जाते हैं और यह आत्मा परमात्मा हो जाता है।
जो हेय, उपादेय तत्त्व को जानकर, परम शांत भाव में स्थित होकर, नि:कषाय भाव प्रगट हुआ और निज शुद्धात्मा में जिनकी लगन हुई वे ही ज्ञानी ज्ञायक है। जो कोई वीतराग स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञानी जीव आराधने योग्य निज पदार्थ और त्यागने योग्य रागादि सकल विभावों को मन में जानकर शांत भाव में तिष्ठते हैं और जिनकी लगन निज शुद्धात्म स्वभाव में हुई है, उनका संसार परिभ्रमण और सब रागादि भावकर्म, शरीरादि नोकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म क्षय हो जाते हैं।
प्रश्न- यह सब कैसे होता है? - इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंकारन कार्ज उपत्ती, नंतानंत दिहि सम दिहि । न्यानं ममल सुसमयं, उववन्नं इस्ट अनिस्ट विलयं च ॥५३५॥
अन्वयार्थ - (कारन कार्ज उपत्ती) जैसा कारण होता है, वैसे कार्य की उत्पत्ति होती है (नंतानंत दिट्टि सम दिट्ठि) अपने अनंत चतुष्टय स्वरूप
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