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H -21 श्री उपदेश शुद्ध सार जी
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अध्यर सुर विंजनयं, पदं च परम तत्त परमिस्टी। पद लोपन पज्जावं, न्यानं आवरन नरय गइ सहियं ॥ ३३५॥
अम्वयार्थ - (अध्यर सुर विंजनयं) अक्षर-अक्षय स्वरूप । स्वर-दिव्यध्वनि रूप, केवलज्ञान सूर्य । व्यंजन-प्रत्यक्ष अनुभव गम्य, शुद्धात्म स्वरूप (पदं च परम तत्त परमिस्टी) पद-ज्ञान ज्योति स्वरूप, परम तत्त्व परमेष्ठी स्वरूप, परमात्म पद है (पद लोपन पज्जावं) जो इस पद का लोप कर पर्याय में रत रहता है (न्यानं आवरन नरय गइ सहियं) वह ज्ञानावरण कर्म बांधकर नरक में जाता है।
विशेषार्थ- अक्षर स्वर व्यंजन और पद यह सर्व ही शब्द, शब्द कोष के अनुसार ज्ञान के ही वाचक हैं, ज्ञान स्वरूप आत्मा स्वयं परम तत्त्व परमेष्ठीमयी परमात्मा है.जो जीव ऐसे अपने परमात्म पदका लोपकर शरीरादि पर्याय में ही रत रहते हैं, वे ज्ञान का दुरुपयोग करने से ज्ञानावरण कर्म बांधकर नरक गति पाते हैं। जड़ शरीर की अंगभूत इन्द्रियां, वे कोई आत्मा के ज्ञान की उत्पत्ति के साधन नहीं हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभाव को साधन बनाकर जो ज्ञान होता है वह ही आत्मा को जानने वाला है । ऐसे ज्ञान की अनुभूति से सम्यक्दर्शन होने के पश्चात् मुमुक्षु को आत्मा सदा उपयोग स्वरूप ही जानने में आता है । अनादि अनंत परमतत्त्व परमेष्ठीमयी ऐसा जो एक निज चैतन्य शुद्ध स्वरूप है, उसके स्वसन्मुख होकर आराधन करना वही परमात्मा होने का सच्चा उपाय है।
सारा जगत ज्ञान का ज्ञेय है, अनुकूलता-प्रतिकूलता कुछ नहीं है, इस अभिप्राय में दृष्टि अभेद होनी चाहिये । दृष्टि में पर पर्याय से लाभ-हानि की मान्यता व कुछ भी इच्छा होना ज्ञानावरण कर्म बंध का कारण है।
प्रश्न-पद का क्या प्रयोग करना चाहिये?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंपदं च अर्थ संजुतं, अर्थ तिअर्थच न्यान सहकारं। पद विनस्ट पर पिच्छं, न्यानं आवरन थावरं सहियं ॥ ३३६ ॥ पदं च सब्द संजुत्तं, पदं च परम भाव संदर्स । सब्दं विनस्ट रूर्व, पर पर्जाव न्यान आवरनं ।। ३३७॥
गाथा-३३५-३३८HHHHHHH पद अर्थ सब्द सुभावं,न्यान विन्यान भाव सुइरूवी। रागं जन रंजनयं, न्यानं आवर्न दुण्य वीयम्मि।। ३३८॥
अन्वयार्थ - (पदं च अर्थ संजुत्तं) पद का प्रयोजन अपने परमात्म स्वरूप में रहना है (अर्थ तिअर्थं च न्यान सहकार) पद का प्रयोजन अपने रत्नत्रयमयी ज्ञान स्वभाव में रहना है (पद विनस्ट पर पिच्छं) अपने स्वरूप से हटकर पर को देखना जानना, पर में लगना अपने पद का दुरुपयोग है, इससे पद विनष्ट हो जाता है (न्यानं आवरन थावरं सहियं) ज्ञान का आवरण स्थावर गति ले जाता है।
(पदं च सब्द संजुत्तं) पद की गरिमा श्रेष्ठता तो तब है, जब जैसा शब्द से कहते हो उस रूप रहो (पदं च परम भाव संदर्स) पद की प्रभुता, गरिमा तो अपने परम पारिणामिक भाव को देखने में है (सब्दं विनस्ट रूवं) जो शब्द अपने स्वरूप को विनष्ट करने वाले, भुलाने वाले हैं (पर पर्जावन्यान आवरनं) ऐसी पर पर्याय में लगने से ज्ञानावरण होता है।
(पद अर्थं सब्द सुभाव) पद का अभिप्राय जो दिव्यध्वनि में आया है उस स्वभाव में रहना है (न्यान विन्यान भाव सुइ रूवी) ज्ञान विज्ञान से अपने भाव स्वरूप को जानना है जो परम पारिणामिक भाव केवलज्ञान स्वरूप है (रागं जन रंजनयं) यदि अपने पद को छोड़कर जनरंजन राग में लगते हो तो (न्यानं आवर्न दुष्य वीयम्मि) ज्ञान पर आवरण कर दुःख का बीज बोते हो।
विशेषार्थ - व्यवहार में शब्दों के समूह को पद कहते हैं, निश्चय से अपना पद जो परमात्म स्वरूप सिद्ध पद है उसमें लीन रहना, यही रत्नत्रयमयी निज पद केवलज्ञान में सहकारी है। ज्ञान का यथार्थ फल आत्मज्ञान तथा केवलज्ञान है। अपने स्वरूप की साधना परमात्म पद धुवधाम में न रहकर, पर को देखना जानना, पर को जानने में लगे रहने से अपना पद भ्रष्ट हो जाता है यही ज्ञानावरण स्थावर गति ले जाता है। पद की गरिमा श्रेष्ठता तो तब है कि जैसा कहा गया है वैसे अपने परमात्म पद पर स्थित रहो, पद की प्रभुता तो अपने परम पारिणामिक भाव को देखने में है, शब्द और ज्ञान में वाच्य वाचक सम्बंध है। जिन शब्दों से आत्मज्ञान का, परमात्मा का बोध हो वे ही शब्द हितकारी हैं। जो शब्द आत्मज्ञान व परमात्म पद को लोप करने वाले,
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