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श्री त्रिभंगीसार जी
की संभावना इसलिए है क्योंकि पुराने संस्कारों के कारण भ्रम में पढ़ सकते हैं। सच्चा धर्म वही है जो राग-द्वेष से रहित पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा के द्वारा कहा गया है । निश्चय से वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है । जैसे आत्मा का चैतन्य स्वभाव ही उसका धर्म है ; किंतु संसार अवस्था में वह चैतन्य स्वभाव तिरोहित होकर गति, इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों के द्वारा विभाजित होकर नाना रूप हो गया है । यद्यपि द्रव्य दृष्टि से वह एक ही है; इसीलिए जिनेन्द्र भगवान ने जो धर्मोपदेश दिया है वह व्यवहार और निश्चय से व्यवस्थापित है। जो साधक अपनी इन्द्रियों और मन के प्रसार को रोकता है तथा आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का अनुभवन करके कृत-कृत्य अवस्था को प्राप्त करता है, उसको प्रथम जीवन मुक्ति पश्चात् परम मुक्ति प्राप्त होती है । मन के एकाग्र होने से स्वसंवेदन के द्वारा आत्मा की अनुभूति होती है, उसी आत्मानुभूति से जीवन मुक्त दशा और अंत में परम मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
हे भव्य ! यदि तुझे विभाव से छूटकर मुक्त दशा प्राप्त करना हो तो चैतन्य के अभेद स्वरूप को ग्रहण कर । द्रव्य दृष्टि, सर्व प्रकार की पर्याय को दूर रखकर एक निरपेक्ष सामान्य स्वरूप को ग्रहण करती है । द्रव्य दृष्टि के विषय में गुण भेद भी नहीं होते, ऐसी शुद्ध दृष्टि प्रगट कर, यही श्रेष्ठ मुक्तिमार्ग है ।
अन्तिम प्रशस्ति गाथा - ७१
जिन उत्तं सुद्ध तत्वार्थ, सुद्धं संमिक् दर्सनं । किंचित् मात्र उवसंच, जिन तारण मुक्ति कारनं ॥ अन्वयार्थ - ( जिन उत्तं सुद्ध तत्वार्थं ) जिनेन्द्र भगवान ने शुद्ध तत्व के स्वरूप को कहा है (सुद्धं संमिक् दर्सनं ) तथा शुद्ध सम्यक्दर्शन अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति से मोक्षमार्ग बताया है (किंचित् मात्र उवएसं च) उसी वस्तु स्वरूप को समझने, समझाने, कहने के किंचित् भाव हुए हैं ( जिन तारण मुक्ति कारनं ) [ श्री] जिन तारण का अभिप्राय मुक्ति प्राप्त करना है, कोई ख्याति, पूजादि लाभ की चाह नहीं है ।
विशेषार्थ - श्री जिनेन्द्र प्रणीत वस्तु स्वरूप सर्वांग निर्दोष व पूर्ण रूप से वैज्ञानिक और सर्वोत्कृष्ट है; कारण कि इसमें परिपूर्ण शुद्धि रूप ध्येय के लक्ष्य से आरंभ होकर तदनुसार प्रथम
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गाथा - ७१
ही दर्शनमोह व अनन्तानुबंधी कषाय जनित चारित्रमोह के अभावपूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति शुद्ध सम्यक्दर्शन से मोक्षमार्ग का मंगलमय प्रारंभ होता है, तभी आविर्भूत होते हुए ज्ञान व आनंद तथा उसके विकास क्रम से लेकर परिपूर्ण शुद्धता पर्यंत की विधि उपदिष्ट है । मोक्षमार्ग की ऐसी अनुपम गाथा को सर्वांग निर्दोष वीतरागी दशा में आरूद होकर अतीन्द्रिय पदार्थ के स्वानुभव में कलम डुबाकर लिखा गया है। शुद्ध सम्यक्दर्शन के अनुसरण से ही मुक्ति का समीचीन मार्ग प्राप्त होता है अत: यही यथार्थ, सार्थक, अनुपम, मुक्ति मार्ग मुझे प्राप्त हो इसी अभिप्राय से (श्री) जिन तारण स्वामी को, जैसा देखा, समझा वैसा किंचित् मात्र कहने लिखने का भाव हुआ है। भव्य जीवों के आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो, यही मंगल भावना है।
वस्तुतः भाव जिनशासन के सद्भाव में ही द्रव्य जिनशासन सर्वांग निर्दोषता पूर्वक पालन हो सकता है और उससे ही सद्धर्म की समीचीन प्रभावना होती है। वस्तु स्वरूप के ज्ञान के अभाव में आगम, अध्यात्म सिद्धांतों और तदनुरूप आचार-विचार में मर्यादा, यथार्थता, निर्दोषता और संतुलन रह पाना दुष्कर है। जो अपने में अनादि अज्ञान से होने वाली शुभाशुभ उपयोग रूप पर समय की प्रवृत्ति को दूर करके सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र में प्रवृत्ति रूप स्व समय को प्राप्त करके, उस स्व समय शुद्धात्म स्वरूप रूप परिणमन करता हुआ मोक्षमार्ग में अपने को परिणमित करके, जो सम्पूर्ण विज्ञानघन स्वभाव को प्राप्त हुआ है तथा जिसमें कोई ग्रहण त्याग नहीं है, ऐसे साक्षात् शुद्धात्म स्वरूप पूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वभाव को देखता है, अनुभूति करता है, यही निश्चय सम्यक्दर्शन मुक्ति का मार्ग है। ज्ञान श्रद्धान होने के बाद बाह्य सर्व परिग्रह का त्याग करके पूर्ण ज्ञान स्वभाव का अभ्यास करना, उपयोग को ज्ञान में ही स्थिर करना, जैसा शुद्ध नय से अपने स्वरूप को सिद्ध समान जाना, श्रद्धान किया था, वैसा ही ध्यान में लेकर चित्त को एकाग्र स्थिर करना और पुन: उसका अभ्यास करना, यही साधक की साधना है जिससे कर्मास्रव का निरोध होकर पूर्वबद्ध कर्म क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट होता है । यही जिनशासन में जिनेन्द्र परमात्मा ने निर्दिष्ट किया है, ऐसा समझकर अत्यंत जागृतिपूर्वक आत्मश्रेय की तीव्र भावना और दृढ़ मोक्षेच्छा सहित आत्म आराधना ही मोक्षमार्ग है ।
मुक्ति, परमात्म पद की पवित्र भावना से श्री जिन तारण स्वामी ने इस त्रिभंगीसार जी ग्रंथ का निरूपण किया है, जो समस्त भव्य जीवों के लिए मुक्ति का कारण है ।
यह त्रिभंगीसार ग्रंथ करणानुयोग का सार है, जैनशासन का यह स्तंभ है,