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श्री त्रिभंगीसार जी आपसे ही आत्मा, आप ही पवित्र होता है। यह आत्मा, आत्मा में ही, आत्मा के द्वारा स्वयमेव अनुभव किया जाता है। जो कोई भव्य जीव भयानक संसार रूपी महासमुद्र से निकलना चाहते हैं, उन्हें उचित है कि कर्मरूपी ईंधन को जलाने के लिए अपने शुद्धात्मा को
ध्यावें।
आत्मा जब ज्ञानी हुआ तब उसने वस्तु का ऐसा स्वभाव जाना कि आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है। ममल स्वभाव शुद्धात्मा है। द्रव्य दृष्टि से अपरिणमन स्वरूप है, पर्याय दृष्टि से पर द्रव्य के निमित्त से रागादि रूप परिणमित होता है इसलिए अब ज्ञानी उन भावों का कर्ता नहीं होता है। जो उदय में आते हैं उनका ज्ञाता ही होता है, इस प्रकार नवीन बंध को रोकता हुआ और अपने आठ अंगों से युक्त होने के कारण निर्जरा प्रगट होने से पूर्व बद्ध कर्मों का नाश करते हुए सम्यकदृष्टि जीव स्वयं निज रस में मस्त हुआ आदि, मध्य, अंतरहित सर्वव्यापक एक प्रवाह रूप धारावाही ज्ञानरूप होकर ज्ञान के द्वारा लोकालोक को प्रकाशित करता है।
__भावक भाव और ज्ञेय भावों में भेदज्ञान होने पर जब सर्व अन्य भावों से भिन्नता हुई तब यह उपयोग स्वयं ही अपने एक आत्मा को धारण करता हुआ, जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है, ऐसे दर्शन ज्ञान चारित्र से जिसने परिणति की है वह अपने आत्मा रूपी उपवन में प्रवृत्ति करता है, अन्यत्र नहीं जाता।
निश्चय से मैं एक हूँ , शुद्ध हूँ , दर्शनज्ञान मय हूँ , सदा अरूपी हूँ , किंचित् मात्र भी अन्य पर द्रव्य परमाणु मेरा नहीं है यह निश्चय है, ऐसा ज्ञानी कर्म को न करता है, न भोगता है, वह कर्म के स्वभाव को मात्र जानता ही है । इस प्रकार करने और भोगने के अभाव रूप मात्र जानता हुआ, शुद्ध स्वभाव में निश्चल वह वास्तव में मुक्त ही है।
गाथा-६९,७०। एतत् भावनां क्रित्वा, त्रिभंगी दल निरोधनं । सुद्धात्मा स्व स्वरूपेन, उक्तं च केवलं जिनं ॥ जिनवाणी हिदयं चिंते, जिन उक्तं जिनागर्म ।
भव्यात्मा भावये नित्यं, पंथं मुक्ति श्रियं धुवं॥ अन्वयार्थ - (एतत् भावनां क्रित्वा) इस प्रकार भावना करते-करते (त्रिभंगी दल निरोधनं ) ऊपर कहे गये सर्व आस्रव त्रिभंगी के दल रुक जाते हैं (सुद्धात्मा स्व स्वरूपेन)
गाथा-६९,७० शुद्धात्मा अपने स्वरूप में ठहर जाता है (उक्तं च केवलं जिनं ) ऐसा केवलज्ञानी जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है।
(जिनवाणी ह्रिदयं चिंते) जिनवाणी का हमेशा हृदय में चिंतन करना चाहिये (जिन उक्तं जिनागमं ) जिनागम में जिनेन्द्र भगवान का ही कथन है(भव्यात्मा भावये नित्यं)जो भव्यात्मा जिनवाणी की हमेशा भावना करते हैं (पंथं मुक्ति श्रियं धुवं) वे श्रेष्ठ मुक्तिमार्ग केपथिक अपने ध्रुव स्वभाव को पाते हैं।
विशेषार्थ- केवलज्ञानी जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि हे भव्य ! तुझे तेरा परिभ्रमण टालना हो तो सम्यक्ज्ञान की तीक्ष्ण बुद्धि से आनंद सागर स्वभाव को ग्रहण कर ले,स्व स्वरूप शुद्धात्मा का आश्रय होने से कर्मास्रव का निरोध होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है।
___ सम्यक्दृष्टि निर्विकल्प अनुभव में नहीं रह सकते इसलिए जिनवाणी का स्वाध्याय, चिंतन-मनन करने से भावों में शुद्धता आती है। जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा कहा हुआ जैनागम ही जिनवाणी है। जो भव्यात्मा अपने शुद्ध स्वरूप को दर्शाने वाली जिनवाणी की नित्य भावना करता है, अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति में डूबता है, उसको कर्मासव का निरोध होकर श्रेष्ठ मुक्ति का मार्ग, अपना ध्रुव स्वभाव प्रगट होता है।
साधक अन्तर में जाए तो अनुभूति और बाहर आए तो तत्व चिंतन होता है। यद्यपि ज्ञानी की दृष्टि सविकल्प दशा में भी परमात्म तत्व पर ही होती है तथापि पंच परमेष्ठी, जिनवाणी चिंतन, ध्याता-ध्यान, ध्येय इत्यादि संबंधी विकल्प भी होते हैं; परंतु निर्विकल्प स्वानुभूति होने पर विकल्प जाल टूट जाता है, शुभाशुभ विकल्प भी नहीं रहते । उग्र निर्विकल्प दशा में ही मुक्ति है, ऐसा मार्ग है।
साधक जीव को भूमिका अनुसार देव, गुरू की महिमा के, श्रुत चिंतवन के, अणुव्रत-महाव्रत आदि के विकल्प होते हैं परंतु वे ज्ञायक रूप परिणति को भाररूप हैं क्योंकि स्वभाव से विरुद्ध हैं। अपूर्ण दशा में वे सविकल्प होते हैं, स्वरूप में एकाग्र होने पर, निर्विकल्प स्वरूप में निवास होने पर यह सब विकल्प छूट जाते हैं। पूर्ण वीतराग दशा में सर्व प्रकार के राग का क्षय हो जाता है, यही श्रेष्ठ मुक्तिमार्ग है।
संसार भ्रमण का कारण एक मात्र अपने स्वरूप को न जानना है। रत्नत्रय की प्राप्ति बड़े ही सौभाग्य से होती है अत: उसे पाकर सतत् सावधान रहने की जरूरत है। एक क्षण का भी प्रमाद हमें उससे दूर कर सकता है। प्रमाद