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श्री त्रिभंगीसार जी
निश्चय नय से देखा जावे तो यह विशुद्ध शुद्ध, सिद्ध के समान है ।
२. भाव- आत्मा के भाव पाँच प्रकार के होते हैं औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक, पारिणामिक । इनमें से चार भाव कर्म सापेक्ष होते हैं। एक अनादि अनन्त शुद्ध चैतन्य स्वभाव वह पारिणामिक भाव है। औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक यह तीन भाव मोक्षकर्ता हैं, औदयिक भाव बन्ध का कारण है और पारिणामिक भाव बन्ध मोक्ष की क्रिया से रहित है।
वर्तमान पर्याय और उसके अतिरिक्त जो द्रव्य सामान्य तथा उसके गुणों का सादृश्यतया, त्रिकाल ध्रुव रूप से बने रहना; ऐसे दो पहलू प्रत्येक द्रव्य में होते हैं। आत्मा भी एक द्रव्य है इसलिए उसमें भी ऐसे दो पहलू हैं, उनमें से वर्तमान पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय है । पाँच भावों में से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक यह चार भाव पर्याय रूप वर्तमान अवस्था के लिए हैं इसलिए वे पर्यायार्थिक नय के विषय हैं । उस वर्तमान पर्याय को छोड़कर द्रव्य सामान्य तथा उसके अनन्त गुणों मैं जो सादृश्यतया, त्रिकाल ध्रुव रूप स्थिर रहता है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। उस भाव को कारण परमात्मा, कारण समयसार या ज्ञायक भाव भी कहा जाता है । वह त्रिकाल सादृश्य रूप होने से द्रव्यार्थिक नय का विषय है। ऐसे अपने परम पारिणामिक भाव के लक्ष्य से कर्मों का क्षय होता है।
३. शुद्ध स्वरूप- जब जीव अपने इन भावों का स्वरूप समझकर त्रिकाल ध्रुव रूप सकल निरावरण अखण्ड एक अविनश्वर शुद्ध पारिणामिक भाव की ओर अपना लक्ष्य स्थिर करता है, यही शुद्ध स्वरूप है, जिसके आश्रय से समस्त कर्म क्षय होते हैं ।
४. तत्व- तत्व शब्द का अर्थ तत्पना या उस रूपता है । प्रत्येक वस्तु में तत्व के स्वरूप से तत्पन है और पर रूप से अतत्पन है। जीव वस्तु है इसलिए उसमें अपने स्वरूप से तत्पन है और पर के स्वरूप से अतत्पन है। जीव चैतन्य स्वरूप होने से ज्ञाता है और अन्य सब वस्तुएँ ज्ञेय हैं इसलिए जीव दूसरे सभी पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। जीव अपने से तत्रूप है इसलिए उसे अपना ज्ञान स्वत: होता है और जीव पर से अतत् है इसलिए उसे पर से ज्ञान नहीं हो सकता । तत्व परिपूर्ण शुद्ध द्रव्य को कहते हैं, तत्व के श्रद्धान से ही सम्यग्दर्शन होता है।
५ . नित्य-आत्मा त्रिकाल शाश्वत ध्रुव स्वभाव है । पुरुषार्थ के द्वारा सत्समागम से अकेले ज्ञान स्वभाव आत्मा का निर्णय करने के बाद मैं अबन्ध हूँ या बन्धवान हूँ, शुद्ध हूँ या
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गाथा ६२
अशुद्ध हूँ, त्रिकाल हूँ या क्षणिक हूँ; ऐसी जो वृत्तियाँ उठती हैं, उनमें आत्मशांति नहीं है । वे वृत्तियाँ आकुलतामय आत्मशांति की विरोधिनी हैं। नय पक्षों के अवलम्बन से होने वाले मन सम्बन्धी अनेक प्रकार के विकल्पों को भी मर्यादा में लाकर अर्थात् उन विकल्पों को रोकने के पुरुषार्थ से श्रुतज्ञान को भी आत्मसन्मुख करने पर शुद्धात्मा का अनुभव होता है । ६. प्रकाशकं - आत्मा स्व पर प्रकाशक केवलज्ञान स्वभावी परमात्मा है। अखण्ड विज्ञान घन स्वरूप ज्ञान स्वभाव आत्मा निश्चय है और परिणति को स्वभाव सन्मुख करना व्यवहार है । मतिश्रुत ज्ञान को अपनी ओर लगा लेने की पुरुषार्थ रूप जो पर्याय है वह व्यवहार है और अखण्ड आत्म स्वभाव निश्चय है ।
सत् श्रुत के परिचय से ज्ञान स्वभाव आत्मा का निर्णय करने के बाद मति श्रुतज्ञान को उस ज्ञान स्वभाव की ओर ले जाने का प्रयत्न करना, निर्विकल्प होने का प्रयत्न करना ही प्रथम मार्ग है ।
शुद्धात्म स्वरूप का वेदन कहो, ज्ञान कहो, श्रद्धा कहो, चारित्र कहो, अनुभव कहो या साक्षात्कार कहो; यह एक आत्मा ही है जो स्व-पर प्रकाशक है । केवली पद, सिद्ध पद या साधु पद, यह सब एक आत्मा में ही समाविष्ट होते हैं।
ऐसे अपने आत्म स्वरूप की भावना करने से कर्मास्रव का निरोध होता
है ।
१६. तत्व, द्रव्य, काय : तीन भाव गाथा - ६२
तत्वादि सप्त तत्वानां दर्व काय पदार्थकं । सार्धं करोति सुद्धात्मानं, त्रिभंगी समय किं करोति ॥ अन्वयार्थ - (तत्वादि सप्त तत्वानां) जीव तत्व आदि को लेकर सात तत्वों का (दर्व काया पदार्थकं) छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नौ पदार्थ ऐसे सत्ताईस तत्वों द्वारा (सार्धं करोति सुद्धात्मानं) जो शुद्धात्मा की श्रद्धा तथा साधना करते हैं (त्रिभंगी समय किं करोति) उन जीवों का कर्मास्रव क्या करते हैं अर्थात् कर्मास्रव विला जाते हैं।
विशेषार्थ - सात तत्व-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। छह द्रव्य-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । पाँच अस्तिकाय - जीवास्तिकाय,