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गाथा-६१ कुछ बन्ध का हेतु है क्योंकि वह स्वयं भी बन्ध स्वरूप है इसलिए ज्ञान स्वरूप आत्मानुभूति ही धर्म ध्यान रूप मोक्षमार्ग है।
ध्यान का प्रयोजन ही परम उदासीन भाव है। जिस योगी का चित्त ध्यान में उसी तरह लीन हो जाता है जैसे पानी में नमक लय हो जाता है तब उसके शुभ और अशुभ कर्मों को जला डालने वाली आत्मध्यान रूप अग्नि प्रगट होती है।
ध्यान ऐसा अमोघ अस्त्र है जिससे एक मुहुर्त में संपूर्ण कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। ध्यान ही मुक्ति को प्राप्त करने का एक मात्र परम साधन
श्री त्रिभंगीसार जी है, ऐसा शुद्धात्मा का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है।
३.रूपस्थ ध्यान-व्यवहार में समवशरण में स्थित चौंतीस अतिशय ,आठ प्रातिहार्य व चार अनन्त चतुष्टय सहित अरिहन्त के स्वरूप का ध्यान करना, अपने आपको उस रूप ध्याना, रूपस्थध्यान है। निश्चय से शुद्ध चिद्रूप परिपूर्ण शुद्ध परमात्मा हूँ, ऐसा अपने स्वरूप का ध्यान करना, रूपस्थ ध्यान है।
..रूपातीत ध्यान-व्यवहार से सिद्ध के स्वरूप को ध्याना, जो जन्म,जरा,मरण से रहित है ,आठ कर्म रहित है, क्रियारहित है, चार गति में गमनागमन रहित है, रागादि मल रहित है, अनुपम है। सिद्ध के स्वरूप को अपने आत्मा में आरोपण करके ध्यावें । निश्चय से अपने अरूपी सिद्धस्वरूप का ध्यान करना रूपातीत ध्यान है।
यही ज्ञानमयी धर्म चक्र है जिससे कर्मों का विध्वंस होता है। ज्ञानी हमेशा ऐसे धर्म ध्यान की साधना-आराधना करता है जिससे कर्मास्रव का निरोध होता है।
शुक्ल ध्यान- स्वात्मदर्शन निर्विकल्प शान्त शून्य ध्यान समाधि है । जीव के निश्चय स्वरूपाश्रित मात्र आठ प्रवचन माता का सम्यग्ज्ञान हो तो वह पुरुषार्थ बढ़ाकर निज स्वरूप में स्थिर होकर शुक्ल ध्यान प्रगट होता है।
शून्य ध्यान में लीन योगी का सर्व व्यापार बंद हो जाता है, चित्त का प्रसार रुक जाता है, इस शून्य ध्यान से परमस्थान जो मोक्ष पद है,वह प्राप्त हो जाता है। प्रश्न-धर्म ध्यान विकल्प रूप है, इससे कर्मासव का निरोध कैसे होता है?
समाधान-सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को उस विकल्प का स्वामित्व नहीं है और सम्यक्दर्शन की दृढता होकर अशुभ राग दूर हो जाता है। चौथे गुणस्थान से धर्मध्यान होता है, पाँचवें-छटवें गुणस्थान में भी धर्मध्यान होता है और उससे उस गुणस्थान के योग्य संवर निर्जरा होती है। जो शुभ भाव होता है, वह तो बंध का कारण है,वह यथार्थ धर्म ध्यान नहीं है। जितना वीतराग भाव शुद्ध स्वभाव की लीनता रूप परिणाम है, उससे कर्मास्रव का निरोध रूप संवर निर्जरा होती है।
जो व्यवहार धर्मध्यान है वह शुभ भाव है, कर्म के चिंतवन में मन लगा रहे यह तो शुभ परिणाम रूप धर्म ध्यान है । जो केवल शुभ परिणाम से मोक्ष मानते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि शुभ परिणाम से अर्थात् व्यवहार धर्म ध्यान से मोक्ष नहीं होता।
ज्ञान स्वरूप आत्मा का ध्रुव, अचल, ज्ञानस्वरूप परिणमित होकर प्रतिभासित होना मोक्ष का हेतु है क्योंकि वह स्वयं भी मोक्ष स्वरूप है। इसके अतिरिक्त सभी
सम्यक्ज्ञानी अपनी आत्मज्ञान की लहरों में ही मगन रहता है, पराश्रय की दीनता दूर हो जाती है। उसकी दृष्टि में मोक्ष पथ सहज दिखाई देता है। उसका मन संसार की समस्त वासनाओं से दूर हो जाता है और बन्ध मार्ग छूट जाता है। जिसके चित्त से रागद्वेष का नाश हो गया वही ज्ञानी और ध्यानी है।
१४. द्रव्य,भाव, सुद्ध: तीन भाव १५. तत्व, नित्य, प्रकासकं : तीन भाव
गाथा-६१ दर्वस्य भाव सुद्धस्य, तत्व नित्य प्रकासकं ।
सुद्धात्मा भावए नित्यं, त्रिभंगी दल पंडितं ॥ अन्वयार्थ-(दर्वस्य भाव सुद्धस्य )आत्मा के द्रव्य स्वभाव को, आत्मा के परम पारिणामिक भाव को व शुद्ध स्वरूप को ध्याना (तत्व नित्य प्रकासकं) तत्व स्वरूप नित्य अविनाशी प्रकाशक ज्ञान स्वभाव की भावना करना (सुद्धात्मा भावए नित्यं)अपने शुद्धात्म स्वरूप की सदा भावना करने से (त्रिभंगी दल पंडितं)इन तीन-तीन दलों से कर्मों के दल का क्षय होता
है।
विशेषार्थ- यहाँ एक गाथा में तीन-तीन भाव की दो त्रिभंगी का स्वरूप बताया है, जिन भावों को ध्याने से कर्मास्रव का निरोध होता है।
१. द्रव्यस्वभाव- आत्मद्रव्य सत् स्वरूप है, गुण पर्यायवान है, अनन्त गुण पर्याय का धारी है, अमूर्तिक है, असंख्यात प्रदेशी है। उत्पाद,व्यय, ध्रौव्य स्वरूप है। आत्मा को शुद्ध