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________________ सम्यक्दर्शन है, सम्यक्दर्शन का होना ही कर्मास्रव के निरोध का मूल है । (गाथांश-७) __शुद्धोपयोग में रमण करना ही आत्मा का स्वहित है, संवर का कारण है। इसके विपरीत अशुद्धोपयोग है, चाहे शुभ हो या अशुभ हो, इसी से कर्मास्रव बंध होता है। (गाथांश-१०) जो कोई आत्मा, जड़ कर्म की अवस्था और शरीरादि की अवस्था का कर्ता नहीं है, उसे अपना कर्तव्य नहीं मानता है, तन्मय बुद्धिपूर्वक परिणमन नहीं करता है किन्तु मात्र ज्ञाता है अर्थात् तटस्थ रहता हुआ साक्षी रूप से ज्ञाता है, वह आत्मा ज्ञानी है। (गाथांश-१४) यदि किसी से किंचित् भी राग है तो द्वेष होगा ही। राग में मिठास होती है वह पुण्य रूप है, द्वेष में खटास होती है वह पाप रूप है। इन्हीं दोनों से पुण्य-पाप का बंध होता है। जब तक पुण्य-पाप का लगाव नहीं छूटता, तब तक धर्म नहीं हो सकता । धर्म साधना में शुभ भाव, राग भाव, पुण्य का लगाव सबसे बड़ी बाधा है । पाप के उदय, पाप के संयोग या पाप को करते हुए धर्म साधना संभव नहीं है। (गाथांश-२४) कंचन, कामिनी, कीर्ति माया का घेरा है । पुत्र-परिवार मोह का घेरा है । धन-वैभव, विषयासक्ति, ममत्व का फै लाव है । जब तक अपनत्वपना, कर्तापना, अहंकार और चाह है, तब तक तनाव अशांति नहीं मिट सकती । आवश्यकता से आकुलता होती है, समस्या से विकल्प होते हैं और जिम्मेदारी से चिंता होती है। (गाथांश-३८) यदि साधक का यह दृढ़ निश्चय हो जाये कि मुझे एकमात्र परमात्म पद प्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं करना है तो वह वर्तमान में ही मुक्त हो सकता है; परंतु यदि वस्तुओं के सुख भोग और जीने की इच्छा रहेगी तो इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती तथा मृत्यु के भय और क्रोध से भी छुटकारा नहीं मिलेगा अत: मुक्त होने के लिए इच्छा रहित होना आवश्यक है। (गाथांश-४३) सम्यक्दृष्टि ज्ञानी जीव जब अपना उपयोग स्वात्मानुभव में नहीं जोड़ पाते हैं तब शुद्धात्मा की स्तुति, उसकी महिमा का वर्णन करते हैं तथा चिंतन-मनन द्वारा बंदना करके उपयोग को शुद्ध भाव में ले जाने की चेष्टा करते हैं, इससे समस्त कर्मास्रव का निरोध हो जाता है। (गाथांश-६४) इस प्रकार के अनेकों रहस्य पूज्य श्री ने इस टीका ग्रंथ में स्पष्ट किये हैं। अन्वयार्थ, विशेषार्थ और साधक, जिज्ञासु के मन में सहज ही उठने वाले प्रश्नों का अपनी भाषा में समाधान करके गूढ रहस्यों को सरलता पूर्वक समझाया है । इस प्रकार की रचनाऐं, टीकाएं स्वाध्यायी मुमुक्षु भव्य आत्माओं के लिए विशेष उपलब्धि है । इन टीका ग्रंथों में क्या है ? यह तो इनके स्वाध्याय चिंतन-मनन से ही जाना जा सकता है । सिद्धांत, सत्य किसी मत पक्ष से बंधा नहीं होता है, वह त्रैकालिक सत्य, एकरूप सार्वभौम होता है, जिसका निष्पक्ष दृष्टि से चिंतन अनिवार्य है । इन ग्रंथों का सदुपयोग तभी है जब सामूहिक रूप से इनका स्वाध्याय मनन हो और अपनी दृष्टि आत्मोन्मुखी हो, यही इन टीकाओं का यथार्थ सदुपयोग है। पूज्य श्री द्वारा अनूदित यह टीकाएँ आत्मार्थी जीवों के लिए विशेष देन है और उनका परम उपकार है कि इस विषम पंचम काल में हम सभी भव्यात्माओं के लिए सत्य वस्तु स्वरूप समझने और आत्म कल्याण करने का मार्ग प्रशस्त किया है। श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ की प्रस्तुत " अध्यात्म प्रबोध टीका” का स्वाध्याय चिंतन-मनन कर सभी जीव शरीरादि कर्म संयोग और रागादि विभाव परिणामों से भिन्न अपने महिमामय चैतन्य ज्ञान स्वभावी शुद्धात्मा का विशेष बोध जाग्रत कर अध्यात्म प्रबोध को प्राप्त होकर अपने मनुष्य जीवन को सफल सार्थक बनायें यही मंगल भावना है। ब्रह्मानन्द आश्रम, पिपरिया ७. बसन्त संत तारण जयंती , दिनांक-३.१२.२०००
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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