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गाथा-२७
श्री त्रिभंगीसार जी
विशेषार्थ- संग-मिलन, संयोग, सम्बन्ध, प्रीति भाव को कहते हैं। जहाँ आत्म स्वरूप की प्रतीति, ज्ञान की चर्चा, साधु-महात्माओं का मिलन होता है वह सत्संग कहलाता है । जिससे परिणामों में वीतरागता और आनंद की वृद्धि हो वह सत्संग है। जहाँ समता भाव रहे वह संग है
और जहाँ परिणामों में निकृष्टता आवे, राग-द्वेष-मोह की वृद्धि हो वह कुसंग है। संग-कुसंग रूप मिश्र भाव है। संग में धन, वैभव, परिवार, परिग्रह भी आता है, इनको मिथ्या बुद्धि से देखना, मूर्छा भाव होना यह भी कुसंग और मिश्रभाव का कारण है। अपने ज्ञान स्वरूप से भ्रष्ट अर्थात् अपने ध्रुवतत्व शुद्धात्मा का यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान करते हुए, मिथ्यात्व की प्रीति में तत्पर रहना, यह पापासव का कारण है। मिथ्यात्व भाव के द्वारा भी तीन प्रकार से परिग्रह का ग्रहण होता हैन्यायपूर्वक, अन्यायपूर्वक, दोनों रूपसे । सभी परिग्रह बन्ध में निमित्त कारण हैं। परिग्रह २४ प्रकार का है, बाह्य परिग्रह के दस और अंतरंग परिग्रह के चौदह भेद हैं। १० बाह्य परिग्रह जमीन, घर, सोना, चाँदी, पशु, धान्य, दास, दासी, वस्त्र, बर्तन।१४ अन्तरंग परिग्रह- मिथ्यात्व,क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद।
घर-परिवार, स्त्री-पुत्रादि का संग होने से परिग्रह में लोलुपता होती है। लोलुपता होने से अति परिग्रह का संचय चाहता है। परिग्रह के अधिक संचय से लोभ बढ़ता है, लोभ से परंपरा दुःख होता है। धन सभी अनर्थों का मूल है मोक्ष में बाधक है, कषायों को पैदा करने वाला है, दु:खों को जन्म देने वाला है। धन की तृष्णा से जो अन्धे वे स्व-पर हित या अहित को नहीं देखते हैं। पुण्य- पाप, न्याय-अन्याय का भी विचार नहीं रहता है।
जो जीव परिवार के मोह में अन्धे हैं, वे तो परिग्रह की मूर्छा में ही रत रहते हैं परन्तु जो जीव धर्म के नाम पर चेला-चेली पालते हैं, मठ-मंदिर बनवाते हैं, धन-संग्रह, पाप-परिग्रह करते हैं; वह मूढ बुद्धि, संग-कुसंग-मिश्र भाव में रत रहते हुए पाप का बंध कर दुर्गति में जाते हैं।
१९. आसा, स्नेह, लोभ: तीन भाव
गाथा-२७ आसा स्नेह आरक्तं, लोभं संसार बन्धनं । अलहन्तो न्यान रूपेन,मिथ्या माया विमोहितं ॥
अन्वयार्थ-(आसा स्नेह आरक्तं ) आशा-विषयों की चाह, स्नेह-विषयभोग के साधन; निमित्त में आसक्त रहना (लोभं संसार बन्धन) लोम-धनादि की तृष्णा संसार का बन्धन है (अलहन्तो न्यान रूपेन) अपने ज्ञान स्वरूप से भ्रष्ट होकर अर्थात् आत्मज्ञान को न पाकर (मिथ्या माया विमोहितं) मिथ्या-माया में विमोहित रहना कर्मासव बन्ध का कारण है। विशेषार्थ- इन्द्रिय विषय भोगों की भावना को आशा कहते हैं तथा इसमें निमित्त साधन धन, स्त्री, परिवार के प्रति अपार स्नेह होना है। किसी प्रकार की इच्छा-चाहना ही लोभ है जो संसार बन्धन का कारण है। अपने ज्ञान स्वरूप को भूला हुआ मानव इस मिथ्या माया में विमोहित रहता है जिससे अनंत कर्मों का बन्ध कर दुर्गति में जाता है।
संसारी जीव को यह आशा, स्नेह, लोभ की तीव्रता रहती ही है; परंतु जो धर्म मार्ग पर चलते हैं वे साधक होकर भी अपने नाम की प्रभावना, प्रसिद्धि की आशा रखते हैं, शिष्यों से, समाज से स्नेह रखते हैं। मठ-मंदिर बनवाते, धन-संग्रह का लोभ करते हैं। साम्रदायिक भावना से मिथ्या-माया में मोहित रहते हैं वे अपने ज्ञान स्वरूप आत्मा का घात कर नरक के पात्र बनते हैं। प्रत्येक प्राणी में आशा रूपी गड्ढा इतना गहरा है कि जगत की सर्वसम्पदा उसमें एक परमाणु के बराबर है। आशा की दाह से पीड़ित होकर इन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति के लिए आकुलित होता है। सांसारिक पदार्थों में धनादि में तीव्र मोह रखता है। जिनसे कुछ भी स्वार्थ सधता जानता है, उनसे स्नेह करता है। जैसे-जैसे सम्पदा मिलती है व इच्छित पदार्थ प्राप्त होते हैं, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। तीव्र लोभ के वशीभूत होकर न्यायअन्याय का विचार छोड़ बैठता है। अहंकार-ममकार में फंसा रहता है, अपने आत्मा का कुछ भी विचार नहीं करता है। उसकी विषय लोलुपता तथा नाम, दाम, काम की चाह निरन्तर बढ़ती जाती है, सन्तोष चला जाता है, विवेक भी भाग जाता है। साधक के अंतरंग में जब तक आशा-स्नेह-लोभ के भाव हैं तब तक वह अपने आत्मस्वरूप की साधना नहीं कर सकता; अतएव आशा, स्नेह, लोभ के भाव त्यागने योग्य हैं। यह महान आसव के कारण हैं। माया का सूक्ष्म रूप ही यह आशा, स्नेह, लोभ हैं जब तक इससे दृष्टि नहीं हटेगी, अन्तरंग में इन भावों का उन्मूलन नहीं होगा तब तक ब्रह्मस्वरूप की उपलब्धि नहीं होगी।