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श्री त्रिभंगीसार जी
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होती है, वैसे ही कर्म बन्ध होते हैं। शुभभाव से पुण्यबन्ध, अशुभभाव से पापबन्ध, मिश्रभाव से पुण्य-पापबन्ध होता है। शुद्ध स्वभाव से मुक्ति होती है। शुभभाव पुण्यबन्ध की जब तक पक डरहेगी तब तक पाप अशुभ भाव भी नहीं छूट सकते। शुभभाव, पुण्य के साथ धन का संबंध रहता है तथा धन के बीच में होने से पाप होता ही है।
जब तक पुण्य-पाप का लगाव नहीं छूटता, तब तक धर्म नहीं हो सकता। धर्म साधना में शुभभाव, रागभाव, पुण्य का लगाव सबसे बड़ी पापा है। पाप के उदय, पाप के संयोग या पाप को करते हुए धर्म साधना संभव नहीं है। पाहसे चिन्ता, मोहसे भय, और राग से संकल्प-विकल्प होते हैं। जिस कर्मोदय, निमित्त, संयोग, वातावरण में रहेंगे, वैसे ही भाव और क्रिया होगी तथा उनमें लिप्तता से वैसा ही कर्मबन्ध भी होगा।
शुभ-अशुभ, मिश्र तीनों भावों से कर्मास्रव होता है जो संसार भ्रमण का बीज है। निर्बन्ध, मुक्त होने के लिए शुद्ध स्वभाव, शुद्धात्मा का अनुभव ही एकमात्र हितकारी है। मोक्षमार्ग के साधक को शुभ परिणाम भी आकुलित करते हैं, वह उनसे बचने का प्रयत्न करता है। ऐसे भाव आते हैं तो भी वह स्वरूप में स्थिरता का उद्यम करता है। किसी न किसी समय बुद्धिपूर्वक जब सभी विकल्प छूट जाते हैं तब वह सहज में स्वरूप में स्थिर हो जाता है और सिद्धत्व के आनंद का अनुभव करता है, यही शुद्धात्मानुभूति मुक्ति का मार्ग है। १७. आलस, प्रपंच, विनासदिस्टि: तीन भाव
गाथा-२५ आलसं प्रपंचं क्रित्वा,विनास दिस्टि रतो सदा।
सुख दिस्टि न हृदये चिंते, त्रिभंगी थावरं पतं॥ अन्वयार्थ-(आलसं प्रपंचं क्रित्वा ) आलस और प्रपंच करके या करता हुआ (विनास दिस्टि रतो सदा) विनाश दृष्टि में सदा रत रहता है अर्थात् हमेशा दूसरों का बुरा विचार करता रहता है (सुद्ध दिस्टि न हृदये चिंते) अपने हृदय में कभी भी शुद्धात्मा का, शुद्ध सम्यक्दर्शन का विचार नहीं करता है (त्रिभंगी थावर पतं) इन तीनों भावों से स्थावर योनि का पात्र होता
गाथा-२६ विशेषार्थ- जो साधक अपने शुद्धात्म स्वरूप का हृदय में चिंतन नहीं करता तथा आलस
और प्रपंच करता हुआ विनाश दृष्टि में हमेशा रत रहता है, वह स्थावर योनि का पात्र हो जाता है। आलस-प्रमाद को आलस कहते हैं। इसके १५ भेद होते हैं : पाँच इन्द्रिय विषय, चार कषाय, चार विकथा, निद्रा और स्नेह से अपने स्वरूप की विस्मृति रूप प्रमाद होता है। इन पन्द्रह प्रमाद में रत जीव कभी अपना आत्महित नहीं कर सकता बल्कि दुर्गति का ही पात्र होता है। पाँचों इन्द्रिय के विषय भोग व व्यर्थ चर्चा में लगे रहने से जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ जाता है। कषायों की प्रवृत्ति और पर का स्नेह विवेक शून्य करके धर्म से भ्रष्ट करता है। निद्रा तो मृत्यु ही है, जहाँ कोई होश नहीं रहता। आलसी मनुष्य का वर्तमान जीवन भी दु:खदायक हो जाता है। प्रपंच-स्वयं के और दूसरों के नाश करने वाले कपट जाल को प्रपंच कहते हैं। कपटी की भावना अपने विषयों के लोभवश दूसरों को विश्वास दिलाकर उनको ठगने की रहती है। संसारी प्रपंच, बैर-विरोध, ईर्ष्या-देष में फँसाना, अर्थ का अनर्थ करके बताना, आपस में झगड़ा कराना, इस तरह अन्यायपूर्वक स्वार्थ साधन के लिए कपट जाल का विचार करना, कपटरूप वचन कहना तथा कपट भरी क्रिया करना प्रपंच है। इससे हमेशा परिणामों में कुटिलता रहती है, जो एकेन्द्रिय स्थावर काय का बन्ध कराती है। विनाशदिस्टि-दूसरों का अहित करने की भावना में लगे रहना विनाशदृष्टि है। झूठा कागज लिखना, चोरी करना,दूसरों का वध करने के लिए कपट करना, कपट से शिकार करना, निरन्तर विचार करना कि किस तरह दूसरों को हानि हो, विनाश का भाव रखना। इन भावों में जो जीव रात-दिन फँसे रहते हैं, वे कभी भी आत्मा के पतन की चिन्ता नहीं करते। इन तीनों प्रकार के भावों से घोर पाप का बन्ध करते हैं जिससे स्थावर काय से दीर्घकाल में भी निकलना कठिन हो जाता है। १८.संग, कुसंग, मिस:तीन भाव
गाथा-२६ संग मूढ मयं दिस्टा, कुसंग मिस्र पस्यते।
अलहंतो न्यान रूपेन,मिथ्यात रति तत्परा॥ अन्ववार्थ-(संग मूढ मयं दिस्टा) संग-संयोग संबंध साथ को कहते हैं, इसमें मूढमति से देखना (कुसंगं मिस्र पस्यते) कुसंग और मिश्र रूप भाव से मोहित होना (अलहंतो न्यान रूपेन ) अपने ज्ञान स्वरूप से भ्रष्ट विपरीत दृष्टि से (मिथ्यात रति तत्परा ) मिथ्यादर्शन की प्रीति में तत्पर रहने से कर्मास्रव होता है।
है।