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गाथा-१०
शुभ हों तो पुण्य बंध कारक हैं तथापि अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में संसारवर्द्धक नहीं हैं। प्रयोजन यह है कि मिथ्यात्व को उगलकर फेंक देना चाहिए। सम्यक्त्वपूर्वक भी मन, वचन,काय का प्रवर्तन जहाँ तक होगा वहाँ तक कर्मासव होगा; अतएव इनका निरोध करके तीन गुप्ति पालकर अपने शुद्धात्मा की गुफा में बैठकर स्वानुभव करना योग्य है । वीतरागता जितनी अधिक होगी आस्रव उतना कम होगा।
जो मन, वचन, काय को रोककर आत्मज्ञान देने वाले शुद्ध निश्चयनय का आलम्बन लेकर स्वस्वरूप में एकाग्र हो जाते हैं, वे निरंतर रागादि भावों से रहित होते हुए बन्ध रहित शुद्ध समयसार (शुद्धात्मा) का अनुभव करते हैं
श्री त्रिभंगीसार जी
१८ इसी प्रकार जब वचन की ओर झुकाव होता है तब वचन योग कहा जाता है और जब काय की ओर झुकाव हो तब काय योग कहा जाता है।
सत्य को मन से विचारना व सत्य ही कहना, सत्य मन व वचन हैं। असत्य ही विचारना व असत्य ही कहना, असत्य मन व वचन हैं। सत्य व असत्य मिश्रित को विचारना व कहना, उभय मन व वचन हैं।
जिस बात को सत्य या असत्य कुछ भी नहीं कहा जा सकता, वह अनुभय मन व वचन हैं। जैसे-" उसने क्या कहा था ?"
मनुष्य और तिर्यंच को पर्याप्त दशा में औदारिक व अपर्याप्त दशा में औदारिक काय योग होता है। कार्माण व औदारिक के मिश्र को औदारिक मिश्र कहते हैं। देव और नारकी को पर्याप्त दशा में वैक्रियक व अपर्याप्त दशा में वैक्रियक मिश्र काय योग होता है । आहारक समुद्घात के समय छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारक शरीर जब बनता है तब पर्याप्त दशा में आहारक काययोग व अपर्याप्त दशा में आहारक मिश्र काय योग होता है।
औदारिक के साथ आहारक मिश्र होता है। विग्रहगति में एवं केवली समुद्घात में प्रतरद्वय व लोक पूर्ण में कार्माण योग होता है, जब तक यह जीव चौदहवें गुणस्थान में न पहुँचे अर्थात् सिद्ध गति के निकट न पहुँचे तब तक हर एक जाग्रत व सुप्त दशा में कोई न कोई योग होता है जिससे कर्म या नोकर्म का आस्रव हुआ करता है । विग्रह गति में केवल कार्माण व तैजस वर्गणाओं का ही ग्रहण होता है।
एकेन्द्रिय को केवल काय योग होता है। दो इन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक काय और वचन योग होता है। सैनी पंचेन्द्रियों के काय,वचन,मन तीनों योग होते हैं। जन्म लेने पर एक अन्तर्मुहर्त तक जीव अपर्याप्त रहता है, शरीर पर्याप्ति पूर्ण करने पर पर्याप्त हो जाता है।
___ हमें यह निश्चय करना चाहिए कि मन, वचन, काय का हलन- चलन कर्मों के आसव व बन्ध का मूल कारण है। मंद कषाय सहित मन,वचन ,काय का परिणमन, शुभ योग कहलाता है तथा तीव्र कषाय सहित मन,वचन,काय का परिणमन अशुभ योग कहलाता है।
मिथ्यात्व सहित मन, वचन, काय की सभी शुभ-अशुभ क्रियाएं विपरीत हैं, संसारवर्द्धक हैं। सम्यक्त्व सहित मन, वचन, काय की क्रिया यदि अशुभ हों तो पाप और
प्रश्न -जब आत्मा निरंजन, निर्विकार, शुद्ध ममल स्वभावी है तो इन भावों और कर्मों से क्या सम्बन्ध है ?
समाधान - अनादि से मोह युक्त होने से उपयोग (जीव) के अनादि से लेकर तीन परिणाम हैं, वे मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति भाव हैं, ऐसा जानना चाहिए। अनादि से यह तीन प्रकार के परिणाम विकार होने से, आत्मा का उपयोग यद्यपि शुद्धनय से शुद्ध निरंजन एकभाव है तथापि तीन प्रकार का होता हुआ वह उपयोग जिस विकारी भाव को स्वयं करता है उस भाव का वह कर्ता होता है। उसके कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य अपने आप कर्म रूप परिणमित होता है।
जो पर को अपने रूप करता है और अपने को पर रूप करता है वह अज्ञान मय जीव कर्मों का कर्ता होता है।
जब आत्मा राग-द्वेष, सुख-दुःखादि अवस्था को ज्ञान से भिन्न जानता है अर्थात् शीत ऊष्णता पुद्गल की अवस्था है उसी प्रकार राग-द्वेषादि भी पुद्गल की अवस्था है, तब वह अपने को ज्ञाता और रागादि रूप को पुद्गल जानता है। ऐसा होने पर रागादि का कर्ता आत्मा नहीं होता, वह तो ज्ञाता ही रहता है। 3. क्रित, कारित, अनुमति : तीन भाव
गाथा-१० क्रितं असुद्ध कर्मस्य, कारितं तस्य उच्यते। अनुमति तस्य उत्पाद्यंते, त्रिभंगी दल उच्यते॥