________________
गाथा-९
श्री त्रिभंगीसार जी
मिथ्यादृष्टि पापानुबंधी पुण्यकर्म बांधता है जो परम्परा से पाप का कारण है। सराग सम्यग्दृष्टि पुण्यानुबंधी पुण्य कर्म बांधता है जो कि परम्परा से पुण्य बंधी होने के कारण मोक्ष में सहकारी है।
___ मिथ्यात्व कर्म के उदय सहित जितने भाव हैं वे सब वास्तव में अशुभ हैं। सराग सम्यक्दृष्टि के भी निचली श्रेणी में कभी अशुभ लेश्या से पाप कर्म का बंध होता है, अशुभोपयोग हो जाता है। तीव्र कषाय की अपेक्षा अशुभ है परन्तु सम्यक्त्व सहित होने से शुभ
तीसरा मिश्रभाव, मिश्रगुणस्थान में होता है जहाँ सम्यक्त्व मिथ्यात्व मिश्र मोहनीय कर्म का उदय होता है, जो अन्तर्मुहर्त से अधिक नहीं ठहरता है; फिर वह जीव इन भावों से या तो मिथ्यात्व में आता है या फिर सम्यक्त्व में चला जाता है। मिथ्यात्व व सासादन गुणस्थान के सर्व भाव मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी कषाय के उदय सहित होने से अशुभभाव हैं।
तीसरे मिश्र गुणस्थान के भाव मिश्र हैं, चौथे अविरत गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्म लोभ गुणस्थान तक शुभ भावों का सद्भाव है जिनसे कर्मों का आसव, बंध होता है। इस प्रकार शुभभाव, अशुभभाव, मिश्रभाव इन तीनों से कर्मासव होता है। कर्मों के आसव व बंध में योग व मोह कारण हैं।
शुद्धभाव से कर्मासव नहीं होता है। सम्यग्दर्शन,ज्ञान,चारित्र रत्नत्रय धर्म, आसव व पन्ध के कारण नहीं है। यह भाव तो संवर निर्जरा के ही कारण है; अतएव रत्नत्रय धर्म की भावना करके राग-देष,मोह का त्याग करना चाहिए।
प्रश्न -यह शुभ-अशुभ मिसभाव से कर्मासव, सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से है या मियादृष्टि की अपेक्षा से है?
समाधान- कर्म सिद्धान्त में सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा नहीं होती। जहाँ योग और कषाय रूप प्रवर्तन होगा वहाँ कर्मासव और बन्ध होगा। मिथ्यादृष्टि को तो निरन्तर ही कर्मबन्ध होता है। सम्यग्दृष्टि को भी चौथे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक भूमिका पात्रतानुसार कर्मासव बन्ध होता है अत: उसे भी सावधान रहना चाहिए।
____सार रूप से जब तक कर्मों का आसव-बन्ध होगा तब तक जीव को संसार में जन्म-मरण करना पड़ेगा, वह सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि हो। इसलिए भव्य जीवों को इस तथ्य को जान समझकर शुभ-अशुभ-मिश्र भावों से बचकर अपने शुद्ध स्वभाव की साधना करना चाहिए।
२. मन,वचन,काय: तीन भाव
गाथा-९ मनस्य चिंतनं क्रित्वा, वचन विपरीत उच्यते।
कर्मनं क्रित मिथ्यात्वं, त्रिभंगी दल स्मृतं ॥ अन्वयार्थ- (मनस्य चिंतनं क्रित्वा) मन से विपरीत चिंतन करना (वचनं विपरीत उच्यते) वाणी से विपरीत वचन बोलना (कर्मनं क्रित मिथ्यात्वं) मिथ्यात्व सम्बन्धी आचरण काय से करना (त्रिभंगी दल स्मृत)यह तीन मन,वचन, काय का त्रिभंगी दल कासव का कारण है। विशेषार्थ- कर्म वर्गणाओं के आसव का मूल कारण योग है। योग के दो भेद हैं - भावयोग और द्रव्ययोग। आत्मा की एक स्वाभाविक शक्ति परिस्पंदन रूप योग जो कर्म एवं नोकर्म पुद्गल वर्गणाओं को आकर्षित करती है, उसको भावयोग कहते हैं। यह भावयोग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम एवं शरीर नामकर्म के उदय से काम करता है। आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन या हिलना, द्रव्य योग है। मन,वचन, काय का हलन-चलन, आत्मा के प्रदेश परिस्पंदन का निमित्त कारण है। जिस समय मन,वचन,काय के द्वारा कुछ कार्य होता है उसी समय आत्मा के प्रदेश सकम्प होते हैं तथा उसी समय पुद्गल कर्म वर्गणाएँ आसवित होती है जिससे कर्मबन्ध हो जाता है। यदि कषाय भाव होता है तो सांपरायिक आस्रव होता है तथा स्थिति अनुभाग बन्ध हो जाता है।
कषाय सहित योग को ही लेश्या कहते हैं। मन,वचन,काय तीनों से एक साथ कार्य नहीं होते। एक समय में एक योग कार्य करता है। योगों का पलटना भी शीघ्र हो जाता है। इन तीनों योगों के १५ भेद हैं : चार मनोयोग, चार वचन योग, सात काय योग।
सत्य, असत्य, उभय, अनुभय-चार मनोयोग हैं। सत्य, असत्य, उभय, अनुभय-चार वचनयोगहैं।
औदारिक काय, औदारिक मिश्र काय, वैक्रियक काय, वैक्रियक मिश्र काय, आहारक काय, आहारक मिश्र काय और कार्माण काय-यह सात काय योग हैं।
यद्यपि भाव योग एक ही प्रकार का है तथापि निमित्त की अपेक्षा से उसके १५भेद होते हैं। जब योग मन की ओर झुकता है तब उसमें मन निमित्त होने से योग और मन का निमित्त-नैमित्तिक संबंध दर्शन के लिए उस योग को मनोयोग कहा जाता है।