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मनुष्यों को ज्ञानी बाह्य में कुछ क्रियायें करते या विकल्पों में पड़ते दिखाई देते हैं, परन्तु अन्तर में तो वे कहीं,चैतन्य लोक - ज्ञान सरोवर की गहराई में गोता लगाते हैं।
ज्ञान स्वभाव तो अनन्त शक्तियों का स्वामी है महान है - प्रभु है। उसके सामने वर्तमान पर्याय अपनी पामरता स्वीकार करती है। ज्ञानी को स्वभाव की प्रभुता और पर्याय की पामरता का विवेक वर्तता है। वर्तमान दशा तो अधूरी है। पर्याय में जब तक पूर्ण वीतरागता न हो जाये, और चैतन्य अपने धुव धाम ज्ञानानन्द स्वभाव में पूर्ण रूप से सदा के लिए विराजमान न हो जाये, तब तक पुरुषार्थ की धारा तो उग्र ही होती जाती है।
जिस समय ज्ञानी की परिणति बाहर दिखाई देती है, उसी समय उन्हें ज्ञायक स्वभाव भिन्न वर्तता है। जैसे किसी को पड़ौसी के साथ बड़ी मित्रता हो, उसके घर आता जाता हो परन्तु वह पड़ौसी को अपना नहीं मान लेता। उसी प्रकार ज्ञानी को विभाव में कभी एकत्व परिणमन नहीं होता, ज्ञानी सदा कमल की भांति निर्लेप रहते हैं। विभाव से भिन्न रूपऊपर-ऊपर तैरते
जाते हैं। जैसे नदी में गोता लगाने डूबने पर - पर का भान नहीं रहता है। यह ज्ञान सरोवर अगम्य अथाह है, जो इसमें डुबकी लगाते स्नान करते हैं वह पवित्र परमात्मा हो जाते हैं। प्रश्न - यह ज्ञान सरोवर कितना विशाल है। इसकी थाह कौन पाते है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं..........
गाथा (११) संमिक्तस्य जलं सुद्धं, संपूरनं सर पूरितं । अस्नानं पिवते गनधरनं,न्यानं सरनंतं धुवं ।।११||
अन्वयार्थ - (संमिक्तस्य) सम्यक्त्व का (जलं) जल( सुद्धं) शुद्ध है ( संपूरनं) सम्पूर्ण, परिपूर्ण, लबालब (सर) सरोवर (पूरित) भरा हुआ है ( अस्नानं) स्नान करते (पिवते )पीते जलपान करते (गनधरन)गणधर देव (न्यानं) ज्ञान का (सर) सरोवर (नंतं)अनन्त - विशाल (धुवं) निश्चयअटल ध्रुव है।
विशेषार्थ - सम्यक्त्व के निर्विकल्प शुद्ध जल से परिपूर्ण भरा हुआ अपना अनन्त चतुष्टयमयी निज परमात्मा ध्रुव स्वभाव शुद्ध ज्ञानमयी महान सरोवर है जो अनन्त ज्ञानादिगुणों का निधान है।
चार ज्ञान (मति-श्रुति- अवधि- मनः पर्यय) के धारी वीतरागी संत गणधर देव जोसर्वज्ञ परमात्मा केवल ज्ञानी अरिहन्त भगवान की दिव्य ध्वनि का प्रसारण - विस्तार करते हैं, वह इस ज्ञान सरोवर के जल में अवगाहन स्नान करते हैं। इसी का जलपान करते हैं। यह आत्म ज्ञान सरोवर महान विशाल अनादि अनन्त है।
इसकी थाह केवल ज्ञानी अरिहन्त परमात्मा ही पाते हैं । केवल ज्ञान होने पर एक समय का उपयोग होता है और वह एक समय की ज्ञान पर्याय तीन काल एवं तीन लोक जान लेती है। ज्ञानी अपने ज्ञान स्वभाव का आलम्बन के बल से ज्ञान में निश्चय व्यवहार की मैत्रीपूर्वक आगे बढ़ता जाता है, और ज्ञान स्वभाव अपनी अद्भुतता में समा जाता है।
यह तो बाह्य लोक है, उससे चैतन्य लोक पृथक ही है, बाह्य में लोग देखते हैं कि इन्होंने ऐसा किया- ऐसा किया। परन्तु अन्तर में ज्ञानी कहां रहते हैं ? क्या करते हैं? वह तो ज्ञानी स्वयं ही जानते हैं। बाहर से देखने वाले
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विभाव का अंश वह दुःख रूप है, भले ही उच्च से उच्च शुभभाव रूपया अति सूक्ष्म राग रूप प्रवृत्ति हो तथापि जितनी प्रवृत्ति उतनी आकुलता है, और जितना निवृत्त होकर स्वरुप में लीन हुआ, उतनी शान्ति एवं स्वरुपानन्द है।
जिसने शान्ति की, अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद चख लिया, उसे राग नहीं पुसाता।
गणधर देव ऐसे ज्ञान सरोवर में निवास करते हैं, उसमें विशेष - विशेष एकाग्र होते - होते वह पूर्ण वीतराग केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान होने से उन्हें ज्ञान की अगाध अद्भुत शक्ति प्रगट होती है। ज्ञान का अन्तर्मुहुर्त का स्थूल उपयोग छूटकर एक समय का सूक्ष्म ज्ञानोपयोग हो जाता है। वह ज्ञान अपने क्षेत्र में रहकर सर्वत्र लोकालोक को जान लेता है। भूत - वर्तमान -भविष्य की सर्वपर्यायों को कम पड़े बिना एक समय में वर्तमानवत् जानता है। स्व पदार्थ तथा अनन्त पदार्थों की तीनों काल की
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