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________________ व्यवहार दोनों को यथावत् जानकर विवेक करता है । यदि ज्ञान निश्चय व्यवहार दोनों को न जाने, तो ज्ञान प्रमाण (सम्यक् ) नहीं होता। यदि व्यवहार का आश्रय करे तो दृष्टि मिथ्या सिद्ध होती है। और यदि व्यवहार को जाने ही नहीं, तो ज्ञान मिथ्या सिद्ध होता है। ज्ञान निश्चय व्यवहार का विवेक करता है तब वह सम्यक् कहलाता है, और दृष्टि व्यवहार का आश्रय छोड़कर निश्चय को अंगीकार करे तो वह सम्यक् कहलाती है। सम्यक दर्शन का विषय अखंड द्रव्य ही है। सम्यक्दर्शन के विषय द्रव्य, गुण, पर्याय के भेद नहीं है । द्रव्य, गुण, पर्याय से अभिन्न वस्तु ही सम्यक्दर्शन को मान्य है। (अभिन्न वस्तु का लक्ष्य करने पर जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है, वह सामान्य वस्तु के साथ अभिन्न हो जाती है ) सम्यक दर्शन रूप पर्याय को भी सम्यक्दर्शन स्वीकार नहीं करता, एक समय में अभिन्न परिपूर्ण द्रव्य ही सम्यक्दर्शन को मान्य है। एकमात्र पूर्ण रूप आत्मा को सम्यक्दर्शन प्रतीति में लेता है परन्तु सम्यक्दर्शन के साथ प्रगट होने वाला सम्यक्ज्ञान सामान्य विशेष सबको जानता है। सम्यक् ज्ञान पर्याय को और निमित्त को भी जानता है। सम्यक्दर्शन को भी जानने वाला सम्यक ज्ञान है। जो जीव, आत्मा के त्रैकालिक स्वरूप को स्वीकार करे, किन्तु यह स्वीकार न करे, कि अपनी भूल अज्ञान के कारण वर्तमान पर्याय में निज के विकार हैं। वह निश्चयाभासी है। उसे शुष्क ज्ञानी भी कहते हैं तथा प्रथम व्यवहार चाहिए, व्यवहार करते करते निश्चय (धर्म) होता है। ऐसा मानकर शुभराग, बाह्य क्रिया कांड पूजा भक्ति व्रतादि करता है। परन्तु अपना त्रैकालिक ध्रुव स्वभाव जो मात्र ज्ञायक है, ऐसा नहीं मानता और न अन्तर्मुख होता है। ऐसे जीव को यदि सच्चे देव गुरु शास्त्र तथा सप्त तत्वों की व्यवहार श्रद्धा हो तो भी अनादि की निमित्त तथा व्यवहार (भेद पराश्रय) की रुचि नहीं छोड़ता, और सत्व तत्व की निश्चय श्रद्धा नहीं करता, तो वह व्यवहाराभासी है, उसे क्रिया जड़ भी कहते हैं। और जो यह मानता है कि शारीरिक क्रिया से धर्म होता है वह व्यवहाराभासी से भी अतिदूर घोर अन्धकार में है। - सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी में वस्तु स्वरुप की ऐसी [33] - - पूरिपूर्णता उपदिष्ट हुई है कि प्रत्येक आत्मा अपने स्वभाव से पूर्ण परमेश्वर परमात्मा है, उसे किसी अन्य की अपेक्षा नहीं है। वैसे ही प्रत्येक जड़ परमाणु भी अपने स्वभाव से परिपूर्ण है। इस प्रकार चेतन व जड़ प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र व स्वतः ही परिपूर्ण है। किसी भी तत्व को किसी अन्य तत्व के आश्रय की आवश्कता नहीं है। ऐसा समझ कर जो अपने परिपूर्ण आत्मा की श्रद्धा व आश्रय करता है। पर का आश्रय छोड़ता है वह ज्ञानी पंडित है, और इस ज्ञान रूपी जल में स्नान करने से स्वयं पवित्र परमात्मा होता है । चैतन्य तत्व के लक्ष्य से रहित जो कुछ किया, वह सब सत्य से विपरीत संसार का कारण ही हुआ । सम्यक्ज्ञान की कसौटी पर रखने से उनमें से एक भी बात सच्ची नहीं निकलती, अतः जिन्हें आत्मा से अपूर्व धर्म प्रगट करना हो, उन्हें अपनी पूर्व में मानी हुई - सभी बातों को अक्षरशः मिथ्या जानकर ज्ञान का संपूर्ण बहाव ही बदलना पड़ेगा। परन्तु जो अपनी पूर्व मान्यताओं को रखना चाहते हैं और उनके साथ धर्म प्रगट करने की बात, ज्ञान का मेल बैठाना चाहते हैं, तो अनादि से चली आ रही मिथ्या मान्यताअज्ञान का नाश नहीं होता और ऐसा नवीन अपूर्व सत्य उनकी समझ में नहीं आयेगा । यह आत्म स्वभाव की बात सूक्ष्म पड़े तो भी सम्पूर्ण मनोयोग से समझने योग्य है। आत्मा सूक्ष्म है, तो उसकी बात भी तो सूक्ष्म ही होगी। जीव ने एक स्व को समझे बिना अन्य सब कुछ अनन्त बार किया है, परन्तु उसमें संसार परिभ्रमण नहीं छूटा, यह अवसर जन्म मरण के चक्र से छूटने को मिला है। ज्ञानी का परिणमन विभाव से विमुख होकर स्वरुप की ओर ढलता है । वह उसमें डुबकी लगाता स्नान करता है। अभी निज स्वरूप में परिपूर्ण रूप से स्थिर नहीं हुआ, इसलिये बार बार उछलता डूबता है। इससे उसे अतीन्द्रिय आनन्द आता है। परम शान्ति मिलती है, और इससे पर्याय में पवित्रता शुद्धि होती है। शुद्धात्म स्वरूप की ओर ढलना ही विकल्प के अभाव होने की रीति, विधि है । उपयोग का झुकाव अन्तर्मुख स्वभाव की ओर होने पर विकल्प छूट [34] -
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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