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अर्थ यह हूं मैं जयवंत स्वरूप सोऽहं । तुम मेरे सदृश हो। तुम्हारा शुद्ध स्वरूप है । मैं ज्ञाता हूं। स्वयं आत्मस्वरूप का दृष्टा हूं। परद्रव्य से, परभाव से रहित हूं। मैं स्वयं स्व हूं ।
अर्थ यह सोऽहं समय जयवंत स्वयं स्वभाव थे । मैं तू तथा तू मैं अभिन्न स्वरूप सोऽहं भाव ये ॥ १६३
अध्यात्म में सदैव निश्चयनय ही मुख्य है। व्यवहारनय के आश्रय से कभी अंश मात्र भी धर्म नहीं होता अपितु उसके आश्रय से राग-द्वेष ही उठते हैं, तो जिसने शुद्ध निश्चयनय से अपने सत् स्वरूप को जान लिया कि मैं अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा और सिद्ध परमात्मा के समान पूर्ण हूं, स्वयं परमात्मा हूं, तब वह वर्तमान पर्याय में जो अशुद्धि है, पूर्व में अज्ञान दशा में जो कर्मों का बन्ध हो गया है, उनको क्षय करने के लिए अपने परम पारिणामिक भाव ममलह ममल स्वभाव सिद्ध स्वरूप ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा का आश्रय लेता है, अपने स्वरूप का अनुभव करता है, निश्चयनय की दृष्टि से इस अनुभव में कर्ता, कर्म और क्रिया का भेद नहीं होता बल्कि षट्कारक शुद्ध निश्चय से अपने में ही घटित होते हैं। व्यवहार में कर्ता कर्म क्रिया का भेद होता है। जैसे- कुंभकार ने घट बनाया, यहां कुंभकार घट बनाने वाला कर्ता हुआ, घट बना रहा है वह उसका कर्म हुआ और घट बनाने की जो विधि है, परिणति है वह उसकी क्रिया हुई। यहां कर्ता कर्म क्रिया तीनों भिन्न-भिन्न हैं। निश्चयनय से अनुभव के समय में कर्ता कर्म क्रिया का भेद नहीं होता, तीनों अभिन्न होते हैं। इसी अभिप्राय को श्री अमृतचन्द्राचार्य महाराज ने अमृत कलश में स्पष्ट किया है
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यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तुतत्कर्म ।
या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥
अर्थ- जो परिणमित होता है वह कर्ता है, परिणमित होने वाले का जो परिणाम है वह कर्म है और जो परिणति है वह क्रिया है, यह तीनों वस्तु रूप से भिन्न नहीं हैं । १५४
द्रव्य दृष्टि से परिणाम और परिणामी में भेद नहीं है, दोनों अभेद हैं और पर्याय दृष्टि से भेद है। भेद दृष्टि से तो कर्ता, कर्म और क्रिया यह तीन कहे गए हैं किंतु अभेद दृष्टि से परमार्थतः यह कहा गया है कि कर्ता कर्म क्रिया तीनों एक ही द्रव्य की अभिन्न अवस्थाएं हैं, प्रदेश भेद रूप भिन्न वस्तुएं नहीं हैं। इसे और स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं -
१६३. वही, अष्टम अध्याय, पृष्ठ २७३, २७७
१६४. समयसार आत्मख्याति टीका, श्लोक - ५१
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एक: परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य । एकस्य परिणतिः स्यादने कमप्येकमेव यतः ॥
अर्थ- वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, एक के ही सदा परिणाम होते हैं अर्थात् एक अवस्था से अन्य अवस्था एक की ही होती है और एक की ही परिणति क्रिया होती है क्योंकि अनेक रूप होने पर भी वस्तु एक ही है भेद नहीं
है । १६५
एक वस्तु की अनेक पर्याय होती हैं, उन्हें परिणाम भी कहा जाता है। और अवस्था भी कहा जाता है। वे संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि से भिन्न-भिन्न प्रतिभासित होती हैं तथापि वस्तु एक ही है, भिन्न नहीं है।
वस्तु स्वरूप की यथार्थता को आचार्यों ने इसी प्रकार स्पष्ट किया है। जहां अभेद अनुभव की बात है वहां तो किसी प्रकार का भेद होता ही नहीं है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वाश्रय पूर्वक ही होता है। आचार्य इसे और भी स्पष्ट करते हैं
नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदने कमनेकमेव सदा ॥
अर्थ- दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते, दो द्रव्यों का एक परिणाम नहीं होता और दो द्रव्यों की एक परिणति अर्थात् क्रिया नहीं होती क्योंकि जो अनेक द्रव्य हैं वे सदा अनेक ही हैं वे कभी बदलकर एक नहीं होते । १६६
जो दो वस्तुएं हैं वे सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेश भेद वाली ही हैं। दोनों एक होकर परिणमित नहीं होती, एक परिणाम को उत्पन्न नहीं करती और उनकी एक क्रिया नहीं होती ऐसा नियम है। यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्यों का लोप हो जाएगा, अतः एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते, और एक द्रव्य के दो कर्म नहीं होते तथा एक द्रव्य की दो क्रियाएं नहीं होती क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्य रूप नहीं होता।
एक ही द्रव्य में कर्ता कर्म और क्रिया की अभिन्नता के आधार पर ही आचार्य श्री जिन तारण स्वामी ने ॐ नमः सिद्धम् मंत्र में सिद्धम् पद जो द्वितीया एकवचन है इसे विशेष रूप से लिया है। इस मंगलमय मंत्र की प्राचीनता तो स्वत: सिद्ध है परंतु इसके आध्यात्मिक रहस्य को कोई विरले ज्ञानी साधक ही जानते हैं।
यहां सिद्धम् पद द्वितीया विभक्ति का एकवचन है, यह संख्या में एक को सूचित करता है क्योंकि बहुवचन न होने से यहां अनेक का अर्थ नहीं लिया जा १६५. वही, श्लोक ५२ १६६. वही, श्लोक ५३
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