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दृष्टि का विषय ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा है, उसमें तो अशद्धता की बात ही नहीं है, परंतु पर्याय में जो अशुद्धि है उसका ज्ञान ज्ञानी को रहता है, उसी को शुद्ध करने के लिए ज्ञानी साधक निरंतर ज्ञानोपयोग करता है और अपने सिद्ध स्वरूप शुद्धात्मा का आश्रय और अनुभव करता है।
जिन्होंने आठोंकों का नाश करके अपने पूर्ण सिद्धत्व को प्रगट कर लिया, ज्ञानी साधक उनके समान ही अपने स्वरूप का अनुभव करता है वही वास्तव में परमात्मा का स्वरूप है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा है
सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना।
सत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्वं परमात्मनः ॥ संपूर्ण पांचों इंद्रियों को वश में करके स्थिर अंत:करण के द्वारा अपने को देखते हुए जो स्वरूप प्रतिभासित होता है वही परमात्मा का स्वरूप है। १५८
जिस जीव को ऐसी यथार्थ दिव्य दृष्टि प्रगट होती है अर्थात् शुद्ध दृष्टि हो जाती है, उसे दृष्टि में अकेला ज्ञायक चैतन्य ही भासता है, शरीर आदि कुछ भासित नहीं होता, भेदज्ञान की परिणति ऐसी दृढ हो जाती है कि स्वप्न में भी आत्मा शरीर से भिन्न भासता है। जाग्रत दशा में तो ज्ञायक निराला ही रहता है।
उसको भूमिका अनुसार बाह्य वर्तन होता है, परंतु चाहे जिस संयोग में उसकी ज्ञान वैराग्य शक्ति अनुपम अद्भुत रहती है। मैं तो ज्ञायक ही हूं ऐसा अनुभव करता है। अंतर में यह निर्णय है कि विभाव और मैं कभी एक नहीं हुए, ज्ञायक पृथक् ही है ऐसा दृढ़ अटल अचल निर्णय रहता है, स्वरूप अनुभव में अत्यंत नि:शंकता वर्तती है। ॐ नम: सिद्धम् मंत्र के आराधन के प्रगट सिद्ध स्वरूप के अनुभव की यह महिमा है।
ज्ञानी ज्ञायक स्वभाव का अवलंबन लेकर विशेष विशेष समाधि का सुख प्रगट करने को उत्सुक है अर्थात् अपने परमात्म स्वरूप में लीन होकर उसी में डूबे रहना चाहता है। उसकी अंतरंग भावना होती है कि स्वरूप में कब नित्य । स्थिरता होगी, कब श्रेणी माड़कर परमानंदमयी परमात्मपद केवलज्ञान प्रगट होगा, कब ऐसा परमध्यान होगा कि आत्मा शाश्वत रूप से अपने ध्रुव धाम में जम जाएगा, चैतन्य का पूर्ण विलास प्रगट होगा, वह अवसर कब प्राप्त होगा, इस प्रकार ज्ञानी साधक ऐसी भावना निरंतर भाते हैं।
ज्ञानी जानते हैं कि परम सुख स्वरूप, परम आनंद स्वरूप तो सिद्ध पद ही है, जिन आत्माओं ने उस पद को प्राप्त किया है वे परम आनंद में लीन पूर्णत्व को उपलब्ध सिद्ध परमात्मा हैं। जैसा कि श्री शुभचंद्राचार्य जी ने कहा है१५८. समाधिशतक, पूज्यपाद स्वामी,श्लोक ३०
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निर्लेपो निष्कल: शुद्धो निष्पन्नोऽत्यंत निर्वृतः।
निर्विकल्पश्च सिद्धात्मा परमात्मेति वर्णित: ॥ अर्थ-जो कर्म रूप लेप से रहित हैं,शरीर रहित, शुद्ध, कृत कृत्य, सबसे अत्यन्त उदासीन, निर्विकल्प ऐसे सिद्ध परमेष्ठी को परमात्मा कहते हैं।५९
साधने योग्य निज शुद्धात्म स्वरूप को दर्शाने के प्रयोजन को सिद्ध करने लिये के अरिहंत, सिद्ध परमेष्ठी दर्पण के समान हैं। अपना तो "चिदानंद ज्ञायक सिद्ध स्वरूप है "वही साधने योग्य है, इसके लिये अरिहंत सिद्ध परमात्मा प्रमाण हैं, आदर्श हैं। अरिहंत परमात्मा के स्वरूप का निर्णय करें तो प्रतीत हो कि "आत्मा भी चिदानंद प्रभु है।" पुण्य-पाप आदि कर्म पर्याय में हैं, उनका नाश होने पर स्वयं सर्वज्ञ परमात्मा हो सकता हूं। निज स्वभाव रूपी साधन के द्वारा ही परमात्मा हुआ जाता है। गृहस्थ आश्रम में परमात्म दशा प्राप्त नहीं होती, यहां तत्त्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप को जानकर निज शुद्धात्मानुभूति करना ही इष्ट और प्रयोजनीय है। यही सत्य धर्म की उपलब्धि है और इसी की साधना के द्वारा अपना दिव्य स्वरूप प्रगट होता है। अरिहंत आदि का स्वरूप वीतराग विज्ञानमय होता है। इसी कारण से अरिहंत आदि परमात्मा स्तुति के योग्य महान हुए हैं। अंतरंग शुद्धता होना और उसका ज्ञान होना यही परम इष्ट है क्योंकि जीव तत्त्व की अपेक्षा से तो जगत के सर्व जीव समान हैं। शक्ति से सभी आत्माएं शद्ध हैं।
सिब परमात्मा के समान अपने आत्म स्वरूप का अनुभव ही धर्म है।
आनंद मय प्रभु की निर्विकार शांति को धर्म कहते हैं । सद्गुरु तारण स्वामी ने कहा है
आनंद सहजानंद धम्म स सहाव मुक्ति गमनं च। आनंद सहजानंदमयी स्व स्वभाव में रहना ही धर्म है यही धर्म मुक्ति की प्राप्ति कराता है। १६०
शुद्ध पारिणामिक भाव रूप त्रिकाली सहजानंद प्रभु का अवलम्बन लेने वाली वह शुद्ध भावना है। त्रिकाली निजानंद प्रभु तो भाव है और उसके लक्ष्य से, उसके अवलंबन से जो निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट होता है वह शुद्ध भावना है। ऐसी उपशम, क्षयोपशम, क्षायिकभाव रूप भावना समस्त रागादि से रहित होती है। ज्ञानी सम्यक्दृष्टि ऐसी भावना में स्थित रहता है। अपने सिद्ध स्वरूपी ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा को जानने वाला ध्याता पुरुष धर्मी जीव जिसको स्वसंवेदन आनंद १५९. ज्ञानार्णव, श्री शुभचंद्राचार्य, शुद्धोपयोगाधिकार-८ १६०. श्री अध्यात्मवाणी, उपदेशशुद्ध सार,गाथांश-२७, पृ.-७०
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