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आचार्य योगीन्दुदेव कहते हैं -
जो परमप्पा सो जि हऊँ,जो हऊँ सो परमप्पु ।
इउ जाणेविणु जोइया, अण्णु म करहु वियप्पु ॥ अर्थ-जो परमात्मा है. वही मैं हूं, जो मैं हूं वही परमात्मा है, यह समझकर हे योगिन् ! अन्य कुछ भी विकल्प मत कर।
जो जिण सोहऊँ सो जिहऊँ एहउ भाउ णिभंतु ।
मोक्खह कारण जोड्या अण्णु णतंतुण मंतु ॥ अर्थ- जो जिनदेव हैं, वह मैं हूं, वही मैं हूं, इसकी भ्रांति रहित होकर भावना कर । हे योगिन् ! मोक्ष का कारण कोई अन्य तंत्र मंत्र नहीं है । १५३
चैतन्य प्रभु परमात्मा अनंत गुणों का पिण्ड स्वयं सिद्ध है अर्थात् इसे किसी ने बनाया नहीं है। ऐसा अनादि अनंत सत्ता का धनी सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा है। धर्मी पुरुषों ने इसी को अपनी दृष्टि का विषय बनाया है इसीलिए राग की और भेद विकल्पों की अपेक्षा किए बिना, अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूप को अखंड धारा से निरंतर अनुभवते हैं। किसी समय राग का अनुभव और किसी समय ज्ञान का अनुभव करें ऐसा नहीं है बल्कि अखंड धारा से स्वानुभव ही वर्तता है।
__'ॐ नम: सिद्धम्' की साधना विशुद्ध आध्यात्मिक साधना है, क्योंकि इस मंत्र के आराधन में अपने सिद्धत्व का अपने में ही अनुभव करना होता है। इस साधना में परद्रव्यों से अपनत्व और कर्तृत्व रूप मान्यता मिटाकर अपने स्वभाव की दृष्टि करने पर मात्र ज्ञाता दृष्टा स्वभाव साधक के अनुभव में आता है अत: वहां रागादि भावों का अस्तित्व ही दिखाई नहीं देता इसलिए ज्ञानी मात्र ज्ञायकपने के अलावा अन्य किसी भी राग अथवा संयोग को महत्व नहीं देता, क्योंकि पराश्रित होने पर ही रागादि भाव होते हैं और अपने स्वभाव से च्युत होने पर पर्याय में होने वाले रागादि अनुभव में आते हैं। सम्यकदृष्टि ज्ञानी उनकी उत्पत्ति में भी मात्र अपनी वर्तमान पुरुषार्थ की निर्बलता को ही कारण मानता है, कोई परद्रव्य, क्षेत्र, काल, संयोग अथवा कर्मादि को नहीं, फिर भी ज्ञायक स्वभाव का जोर होने से रागादि की उपेक्षा होने पर वे टूटते ही जाते हैं और स्वभाव का बल बढ़ता जाता है।
साधक की साधना में पुरुषार्थ के इसी संघर्ष में रागादि को उपचार से कर्मकृत। कहा जाता है, स्वच्छंदी होने के लिए नहीं कहा जाता। रागादि की उत्पत्ति परद्रव्य के आश्रय करने से ही होती है। इस प्रकार के निर्णय से ही सर्व विश्व से परोन्मखी दृष्टि हो जाने से श्रद्धान में अत्यंत निराकुलता प्रगट हो जाती है। यही परमसुख, १५३. योगसार, योगीन्दुदेव, गाथा २२,७५
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स्वाभाविक सुख, आत्मीय सुख है। इसी ज्ञायक स्वभाव की दृढ़ता एवं रमणता से चारित्र में परम निराकुल शांति अनुभव होने लगती है और जब अक्रम उपयोग से मात्र ज्ञायकपना ही रह गया और कभी एक समय के लिए भी स्वभाव च्युति नहीं है ऐसी अवस्था विशेष का नाम ही मोक्ष है, वही अविनाशी परम उत्कृष्ट निराकुलता जनित सुख है।
'ॐ नमः सिद्धम्' में निहित अन्त: तत्त्व परम पारिणामिक भाव स्वरूप ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा का आश्रय लेने पर जिस 'सिद्ध' को नमस्कार किया जा रहा है वह 'सिद्ध' पर्याय में भी प्रगट हो जाता है।
चतुर्थ गुणस्थानवी अविरत सम्यकदष्टि अपने स्वभाव की दृष्टि करने पर आंशिक अनुभव करता है, अत: स्वभाव दृष्टि वह सम्यक्पष्ट है और पर्यायदृष्टि अथवा निमित्ताधीन दृष्टि वह मिथ्यादृष्टि है। स्वभाव दृष्टि से मोक्ष और पर्याय दृष्टि से संसार भ्रमण होता है।
सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी में वस्तु स्वरूप की ऐसी परिपूर्णता उपदिष्ट हुई है कि प्रत्येक आत्मा अपने स्वभाव से पूर्ण परमेश्वर परमात्मा है, उसे किसी अन्य की अपेक्षा नहीं है। उसी प्रकार प्रत्येक जड़ परमाणु भी अपने स्वभाव से परिपूर्ण है, इस प्रकार चेतन व जड़ प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र और स्वत: ही परिपूर्ण है। किसी भी तत्त्व को किसी अन्य तत्त्व के आश्रय की आवश्यकता नहीं है, ऐसा समझकर जो अपने परिपूर्ण आत्मा की श्रद्धा और आश्रय करता है, पर का आश्रय छोड़ता है वही सम्यक्दृष्टि ज्ञानी साधक धर्मात्मा है।
संसारी अवस्थायें जीव के पूर्वोपार्जित कर्म के उदय के निमित्त से बनती हैं किंतु यह सब होने पर भी आत्मा स्वभाव से परिपूर्ण परमात्मा है, जब अपना अनुभव स्वयं करता है उस समय आचार्यों ने इसे परमदेव कहा है।
आचार्य योगीन्दुदेव ने प्रभाकर भट्ट को समझाते हुए कहा हैएहुजु अप्पा सो परमप्या, कम्म विशेजायउ जप्या। जामइ जाणइ अप्य अप्पा, तामइ सो जि देउ परमप्पा ॥
अर्थ-यह स्वसंवेदन ज्ञानकर प्रत्यक्ष आत्मा, वही अनंत चतुष्टय का धारी निर्दोष परमात्मा है, वह व्यवहार नय करि अनादि कर्म बंध के विशेष से पराधीन हुआ दूसरे का जाप करता है, परंतु जिस समय वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानकर अपने को जानता है उस समय यह आत्मा ही परमात्म देव है। और भी कहा है
जो परमप्पा णाणमउ, सो हऊँ देउ अणंतु । जो हऊँ सो परमप्पु परु, एहउ भावि णिभंतु ॥
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