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का संबंध है अर्थात् 'ओ ना मा सी धम्' बाप बढे ना हम 'वह ऐसा ही साम्प्रदायिक उन्हें लग रहा था जैसे उनके पांव स्वयमेव किसी विलक्षण सत्ता की ओर बढे जा विद्वेष या जिसके कारण बुद्ध का बुद्धू ,भद्र का भद्दा बना । यह साम्प्रदायिक विद्वेष रहे हैं; और इस तरह मगसिर वदी दसमी को तीस वर्ष की आयु में "ओम् नमः ही था जिससे प्रियदर्शी का मूर्ख हो गया और संस्कृत प्रसिद्ध नाटक मृच्छकटिक सिद्धम्" की अनुगूंज के साथ उनकी आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ हो गई। १२७ के अनुसार बिम्बसार की पत्नि चेलना जो कट्टर जैन धर्मावलंबी थी, उसको आर्यिका श्री ज्ञानमती जी ने 'जैन भारती' नामक ग्रंथ के प्रथमानुयोग 'छलना' नाम से पुकारा जाने लगा। भाषा विज्ञान के इन बदलते पहलुओं का विभाग में भगवान महावीर स्वामी के जीवन परिचय के अंतर्गत लिखा हैअध्ययन एक ओर रुचिकर है तो दूसरी ओर तत्कालीन हवा पानी के समझने में
"इस प्रकार से तीस वर्ष का कुमारकाल व्यतीत हो जाने के बाद एक दिन भी सहायक है। ॐ नम: सिद्धम् भी इस बदलती जलवायु का शिकार बना । १२४ स्वयं ही भगवान को जाति स्मरण हो जाने से वैराग्य हो गया। उसी समय स्तुति
इसी बात की पुष्टि महात्मा भगवान दीन द्वारा लिखित लेख- "शिक्षा का पढ़ते हुए लौकांतिक देवों ने आकर पूजा की। देवों द्वारा लाई गई चन्द्रप्रभा पालकी स्वरूप' से भी होती है। इस संबंध में उनने लिखा है- कातंत्र व्याकरण का प्रथम पर भगवान को विराजमान करके उस पालकी को पहले भूमिगोचरी राजाओं ने सूत्र "स्वयं सिद्धवर्ण समाम्नाय :" भी आगे चलकर अपभ्रष्ट हो गया और बालक, फिर विद्याधर राजाओं ने और फिर इंद्रों ने उठाया और वे षण्ड' नामक वन में ले वर्णमाला सीखते समय पहले 'सरदा वरना सवा मनाया' कहने लगे। स्वयं सिद्धम् गए, वहां रत्नमयी बड़ी शिला पर उत्तर की ओर मुंह करके बेला का नियम लेकर वर्ण को 'सरदा वरना' और समाम्नाय: को 'सवा मनाया' कहने लगे। मुख सौकर्य विराजमान हो गए और आभरणों का त्याग कर पंचमुष्टि लोंच करके 'ॐ नमः की यह प्रकिया सदैव चलती रही है। अत: स्वयं सिद्धम् वर्ण समाम्नाय: का सरदा। सिद्धम्' कहते हुए जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। १२८ वरना सवा मनाया परम्परानुकूल ही है, अर्थ उसका वही है ।१२५
प्रथमानुयोग के ग्रंथों में श्रीपाल-मैनासुंदरी की कथा बहुप्रचलित है। श्री ऐसा ही एक समय था जब सैकड़ों वर्ष की मंगल परम्परा 'ॐ नम: सिद्धम् । कोटिभट श्रीपाल नामक पुराण में कथन है कि श्रीपाल ने सहस्रकूट चैत्यालय के को विकृत बना दिया गया। फिर भी ऐसे अनेकों उद्धरण हैं जिनसे 'ॐ नमः । वजसम कपाट 'ॐ नमः सिद्धम्' कहते हुए खोल दिये थे, संक्षिप्त प्रसंग इस सिद्धम्' की प्राचीनता प्रमाणित होती है। इस संबंध में आदिनाथ प्रभु ने ब्राह्मी । प्रकार हैसुंदरी को लिपि और अंक विद्या की शिक्षा दी वह इस मंत्र के साथ प्रारंभ की गई "हंसद्वीप के राजा कनककेतु एवं उनकी पत्नी कंचनमाला आनंद पूर्वक थी 'सिद्धम् नम: इति व्यक्त मंगलां सिद्ध मातृकाम्"१२६
जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनके दो पुत्र और एक पुत्री थी। जब पुत्री के विवाह की इस प्रकार अनेकों तथ्यात्मक प्रमाणों का उल्लेख ॐ नम: सिद्धम् के संबंध राजा को चिंता हुई तब उसने किन्हीं अवधिज्ञानी मुनिराज से इस संबंध में पूछा। में किया जा चुका है। महावीर भगवान ने भी दीक्षा के समय इस मंत्र का उच्चारण मुनिराज ने कहा कि जो पुरुष सहस्रकूट चैत्यालय के वज़ समान प्रचण्ड द्वार को किया था, वह प्रसंग इस प्रकार है
खोलने में समर्थ होगा वह तुम्हारी कन्या रयनमंजूषा का योग्य पति होगा। राजा "अहिंसा के अग्रदूत वर्द्धमान महावीर ने उनतीसवें वर्ष में प्रवेश किया, प्रसन्न हुआ, और घर आकर सहस्रकूट चैत्यालय के द्वार पर पहरेदार बिठाये तथा यह वर्ष उनके जीवन का सबसे अधिक क्रांतिकारी वर्ष था। इसमें उनकी आस्था द्वार खोलने वाले का सत्कार करने एवं राजा को सूचना देने की आज्ञा दी।
और संकल्प शक्ति पकी तथा साधना ने प्रखर रूप धारण किया, उनका चित्त संयोगवश धवल सेठ हंसद्वीप के तट के समीप पहुँचा । उसने वहां हाजी भवसागर के तट पर चरम सत्य की खोज कर रहा था। उत्तरोत्तर उनका मन मोक्ष बेड़े को रोका, द्वीप को देखने की इच्छा थी कि संभवत: कोई व्यापारिक केन्द्र की दुर्द्धर साधना के लिए तैयार हो गया था। इस साधना के सम्मुख सांसारिक । हो । धवल सेठ के साथ श्री पाल भी समुद्र यात्रा पर थे वे भी द्वीप पर उतरे । सुख उन्हें अकिंचन लगते थे उनका अंत:करण एक अपूर्व आनंद से झंकृत था। स्वर्णमय चैत्यालय देखा, वहाँ पहुँचे और पहरेदारों से किवाड़ बन्द होने का कारण सारे व्यवधान अमंगल, कोलाहल, मोह और बंधन शिथिल तथा शांत हो गए थे, पूछा। पहरेदारों ने निवेदन किया कि हे देव ! इस मंदिर के द्वार वज के बने हुए हैं, १२४. ओ ना मा सीधम, डा. प्रेमसागर जैन, दिल्ली प्रकाशन, पृ.६४-६५
१२७. नवभारत, निर्वाणोत्सव दीपावली विशेषांक, सुनील जैन, नागपुर १२५. शिक्षा का स्वरूप, महात्मा भगवानदीन, वीर शिक्षा विशेषांक, सन् १९६१पृ.१२
प्रकाशन,१९९३ १२६. महापुराण,सर्ग १६/१०५
१२८. जैन भारती,आर्यिका ज्ञानमती, हस्तिनापुर प्रकाशन १९८२,पृ.६९ ९२