________________
श्री महेश कुमार मिश्र के अनुसार भी यह वर्णमाला स्वयं सिद्ध मानी गई है। उनका कथन है- "वैसे इस सूत्र- 'ओऽम् नम: सिद्धम्' का भावार्थ स्पष्ट है कि जिसने योग या तप के द्वारा अलौकिक सिद्धि प्राप्त कर ली है; अथवा जो बात तर्क और प्रमाण के द्वारा सिद्ध हो चुकी है उसे नमस्कार है। भारतीय भाषाओं की वर्णमाला चूंकि वेद सम्मत तथा स्वयं सिद्ध मानी जाती है अत: कहा जा सकता है कि 'सिद्धम्' का प्रयोग उसी के निमित्त किया गया है। कुछ लोग इसका संबंध गणेश, वाग्देवी तथा जैन तीर्थंकर महावीर से भी जोड़ते हैं।६६
श्री अमृतचंद्राचार्य जी बहुश्रुत ज्ञानी सत्पुरुष थे, श्री पुरुषार्थ सिद्धि उपाय ग्रंथ के अंतिम श्लोक में आचार्य अपनी लघुता के आधार पर एक महत्वपूर्ण तथ्य । प्रगट करते हैं कि यह वर्ण आदि अपने में स्वयं सिद्ध हैं यही ग्रंथ के वास्तविक कर्ता हैं। उन्होंने लिखा है -
वर्ग: कृतानि चित्रै: पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि। वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥
अर्थ - अनेक प्रकार के अक्षरों से रचे गए पद, पदों से बनाए गए वाक्य हैं और उन वाक्यों से फिर यह पवित्र पूज्य शास्त्र बनाया गया है, हमारे द्वारा कुछ भी नहीं किया गया है।
अक्षर, पद, वाक्यों से इस ग्रंथ की रचना हुई है ऐसा आचार्य यहां कहना चाहते हैं। इसी प्रकार का उल्लेख उन्होंने तत्त्वसार में भी किया है -
वर्णाः पदानां कर्तारो, वाक्यानां तु पदावलिः ।
वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य, कर्तृणि किं पुनर्वयम् ॥ अर्थ-विविध वर्गों से पद, पदों से वाक्य और वाक्यों से यह पवित्र शास्त्र बना है, इसे हमने नहीं बनाया। ६८
श्री अमृतचंद्राचार्य जी ने इसी प्रकार का कथन अध्यात्म अमृत कलश के अंतिम श्लोक में किया है -
स्वशक्ति संसचित वस्तु तत्व
ख्यिा कृतेयं समयस्य शब्दैः। स्वरूप गुप्तस्य न किंचिदस्ति,
कर्तव्यमेवामृतचंद्र सूरे: ॥ ६६. ओनामासीधम: बाप पढ़े न हम, कादंबिनी, १९८३ ६७. पुरुषार्थ सिद्धि उपाय, अमृतचंद्राचार्य, सोनगढ़ प्रकाशन, वि.सं. २०३५
गा.२२६, पृष्ठ-१९५ ६८. अध्यात्म अमृत कलश,पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री, पृष्ठ ५५
अर्थ-जिनने अपनी शक्ति से वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को भलि-भांति कहा है, ऐसे शब्दों ने इस समय की व्याख्या अर्थात् आत्म वस्तु का व्याख्यान अथवा समय प्राभृत की टीका की है। स्वरूप गुप्त अमृतचंद्र सूरि का इसमें कुछ भी कर्तव्य (कार्य) नहीं है । ६९
आचार्य ने मात्र वर्ण और वाक्य को ही महत्ता दी है, इस प्रकार अपूर्व भाव का प्रकाशन करने वाले वे अनूठे संत थे। अमृतचंद्राचार्य दिगम्बर जैन साधु थे। वाक्य पदीयम् के लेखक भर्तृहरि वैदिक परंपरा का अनुगमन करने वाले थे । इसी प्रकार चर्चा सागर के लेखक जैन विद्वान हैं और महेश मिश्र वैदिक परंपरानुवादी हैं परंतु सभी ने सिद्ध मातृका को अनादि सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया है, इसका अर्थ है कि प्राचीनकाल से अब तक जैन और वैदिक परंपरा में मातृका को एक समान रूप से स्वीकार किया गया है।
वर्ण मातृका के संबंध में विक्रम की ११वीं सदी के लगभग हए शभचंद्राचार्य जी ने भी ज्ञानार्णव में उल्लेख किया है।
ध्यायेदनादि सिद्धांत प्रसिद्ध वर्णमातृकाम् ।
नि:शेष शब्द विन्यास जन्मभूमि जगन्नुतां ॥ अर्थ - अनादि सिद्धांत के रूप में प्रसिद्ध वर्णमातृका का ध्यान करना चाहिए। यह विश्व के संपूर्ण शब्द विन्यास की जन्मभूमि है, ऐसा सभी को मालूम है।
अक्षर पद की व्युत्पत्ति इस प्रकार है "नरति इति अक्षरः" जिसका कभी क्षरण न हो वह अक्षर है। अतएव अक्षरं ब्रह्म कहकर अक्षर को परमात्मा का स्वरूप माना गया है। अतएव अक्षर अनादि स्वयंभूत है किसी के द्वारा निर्मित नहीं है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक के रचयिता पं.टोडरमल जी ने भी इस सत्य को स्वीकारते हुए बहुत ही महत्वपूर्ण कथन किया है।
"अकारादि अक्षर हैं वे अनादि निधन हैं, किसी के किए हुए नहीं हैं। इनका आकार लिखना तो अपनी इच्छा के अनुसार अनेक प्रकार है, परंतु जो अक्षर बोलने में आते हैं वे तो सर्वत्र सर्वदा ऐसे प्रवर्तते हैं। इसलिए कहा है कि -"सिद्धो वर्ण समाम्नायः" इसका अर्थ यह है कि जो अक्षरों का सम्प्रदाय है सो स्वयं सिद्ध है तथा उन अक्षरों से उत्पन्न सत्यार्थ के प्रकाशक पद उनके समूह का नाम श्रुत है, सो भी अनादि निधन है। जैसे-'जीव' ऐसा अनादि निधन ६९. समयसार, कुन्दकुन्दाचार्य, पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट प्रकाशन ७०. ज्ञानार्णव, शुभचंद्राचार्य,३८/२८
७०