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जी का साहित्यिक काल शक संवत् ८८१ से ८९४ तक है। ११
अपभ्रंश भाषा के इस महापुराण ग्रंथ में भी लिखा है कि तीर्थंकर ऋषभदेव ने भी ब्राह्मी और सुन्दरी को अक्षर और गणित की शिक्षा दी उसका प्रारंभ ॐ नम: सिद्धम् से किया ऐसा अभिप्राय ग्रंथ की निम्नलिखित दो पंक्तियों से स्पष्ट है-
भावे णमसिद्ध पभणेप्पणु वाहिण बाम करेहिलिहेप्पिण। दोहिं मि णिम्मलकंचनवण्णहं अक्खर गणिपई कण्णहं॥
अर्थ- भावपूर्वक सिद्ध को नमस्कार कर भगवान ऋषभदेव ने दोनों ही निर्मल कंचनवर्णी कन्याओं को, दायें और बायें हाथ से लिखकर अक्षर और गणित बताया अर्थात् उसका ज्ञान कराया। १२
कवि अर्हद्दास, पंडित आशाधर जी के समकालीन माने गए हैं, अपनी रचना में आशाधर जी से प्राप्त प्रेरणा का उन्होंने स्वयं उल्लेख किया है। कवि अर्हद्दास द्वारा लिखित तीन रचनायें, काव्य रूप में उपलब्ध हैं- मुनि सुव्रत काव्य, पुरुदेव चम्पू और भव्यजन कण्ठाभरणं।
कवि अर्हद्दास ने ब्राह्मी और सुन्दरी के शिक्षा ग्रहण का प्रसंग अत्यंत लालित्य पूर्ण ढंग से व्यक्त किया है, उन्होंने ब्राह्मी में विद्या की उत्पत्ति इस प्रकार मानी है, जैसे- प्राची दिशा में शुक्ल पक्ष का चन्द्रउदय हो गया हो। १३
ब्राह्मीं तनूजा मति सुन्दरांगी, ब्रह्मनाथः तस्यामुत्पादयत्सः। कला निधिः पूर्ण कला मनोहा,
प्राच्य विशायामिव शुक्ल पक्षः॥ 'पुरुदेव चम्पू' एक काव्य है। इसमें गद्य और पद्य दोनों हैं। एक स्थान पर कवि अर्हद्दास लिखते हैं कि ब्राह्मी और सुंदरी दोनों के विवेक और शील को देखकर जगत्गुरु भगवान ऋषभदेव ने विचार किया कि यह समय इनके लिए विद्या ग्रहण का है अत: उन्होंने दोनों को 'ॐ नम: सिद्धम्' से प्रारंभ होने वाली 'सिद्ध मातृका' का उपदेश दिया, गणित सिखाया और व्याकरण, छन्द, अलंकार आदि की शिक्षा दी। इसका संस्कृत अंश इस प्रकार है
"तदनुवयो विनय शीलादिकं विलोक्य जगद्गुरु विद्या स्वीकरण कालोऽयं इति मत्वा ब्राह्मी-सुंदरीभ्यां 'ॐ नमः सिद्धम्' इति मातृकोपदेशपुरःसरं गणितं स्वायमुवाभिधानानि पद विद्या छन्दो ११. जैन साहित्य और इतिहास, पंडित नाथूराम प्रेमी, बम्बई पृष्ठ २५० १२. कवि पुष्पदंत कृत महापुराण (अपभ्रंश)५/२८ १३. पुरुदेव चम्पू-६/३९,४०
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विचिंत्यालंकार शास्त्राणि"।१४
'णाय कुमार चरिउ' जिसे हिन्दी में नागकमार चरित्र कहते हैं। आचार्य पुष्पदन्त की यह दूसरी महत्वपूर्ण रचना है। इसका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद, प्राकृत-अपभ्रंश के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. हीरालाल जैन ने किया था। यह ग्रंथ भारतीय ज्ञानपीठ से ई.सन् १९७२ में प्रकाशित हो चुका है। इसी ग्रंथ का एक प्रसंग है -
"एक राजा का सद्य: जात बेटा तालाब में गिर गया, वहाँ वह उस तालाब के अधिनायक नागराज के फण पर जाकर अटक गया । नागराज ने बालक के सौन्दर्य, स्वास्थ्य और भविष्यगत क्षमताओं को परखते हुए उसका प्रेम पूर्वक लालन-पालन किया। जब वह लड़का बड़ा हुआ तो नागराज ने उसे विद्या देना प्रारंभ किया, उसका वर्णन श्री पुष्पदंत जी करते हैं
सिद्ध भणेवि अट्ठारह लिपिउ भुअंगउ। दक्खालइ सुयहो मेहावि अणंगउ ॥ कालक्खरई गणियइं गंधवई वायरणाई सिक्खिउ ।
सोणिच्चं पढ़तु हुउ पंडिउ वाएसरिणिरिक्खिउ ॥५ अर्थ- 'सिद्ध भगवान को नमन करो 'ऐसा कहकर नाग ने पुत्र को अठारह प्रकार की लिपियां सिखाई और वह कामदेव जैसा मेधावी पुत्र उन्हें सीखने लगा। नाग ने उसे स्याही से काले अक्षर लिखना, गणित गान्धर्व विद्या (संगीत) कला
और व्याकरण सिखलाया । नित्य पढ़ते-पढ़ते नागकुमार सरस्वती का निवास पंडित बन गया।
पूर्वकाल में 'सिद्ध वंदन' के साथ शिक्षा प्रारंभ की जाती थी, जिसका परिणाम यह होता था कि विद्यार्थियों के जीवन में अध्यात्म बीज के रूप में सुरक्षित हो जाता था, यही अध्यात्म का बीजांकुर उनके जीवन को भविष्य में अध्यात्ममय बना देता था। अध्यात्म की मूल भावना होने से विद्यार्थियों में सहजता, मृदुता, गुरु भक्ति, विद्या के प्रति समर्पण आदि अनेक गुण हुआ करते थे, क्योंकि शिक्षा का मूल उद्देश्य भी शिक्षार्थी के जीवन को अध्यात्ममय और ज्ञानमय बनाना होता है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपने ग्रंथ कला और संस्कृति में मनु का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मनु के शिक्षा कम का उद्देश्य डाक्टर, वकील, इंजीनियर, अथवा इनके समान पेशेवर लोग उत्पन्न करना नहीं है बल्कि ऐसे १४. पुरुदेव चम्पू-७, पृष्ठ १४२ १५. णायकुमार चरिउ, पुष्पदंत, डॉ. हीरालाल जैन द्वारा संपादित. ३/१ पृष्ठ ३६१,भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन १९७२
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