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जेसिं आउसमाई, णामगोदाइं वेदणीयं च।
हैं। योग का निरोध होते ही समस्त कर्मों का संवर हो जाने से शील के स्वामी हो ते अकदसमुग्धादा, जिणा उवणमंति सेलेसिं ॥
जाते हैं। 'अ,इ,उ,ऋ,ल, इन पाँच हस्व अक्षरों को न तो अति शीघ्रता से और ॥ भगवती आराधना सूत्र-२१०४॥
न अति देर से उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतना ही काल शैलेषी जिनके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति आयु कर्म के समान होती अवस्था का है। काययोग का निरोध होने के समय से लेकर केवली भगवान सूक्ष्म है वे सयोग केवली परमात्मा समुद्घात किये बिना शैलेषी अवस्था को प्राप्त करते क्रिया निवृत्ति रूप शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं और शैलेषी अवस्था में समुच्छिन्न हैं, किंतु आयु कर्म की स्थिति कम होती है और नाम, गोत्र, वेदनीय कर्म की क्रिया प्रतिपाति ध्यान को ध्याते हैं। यद्यपि मनोनिरोध का नाम ध्यान है, और स्थिति अधिक होती है वे सयोग केवली जिन समुद्घात करके ही शैलेषी अवस्था केवली के मन नहीं रहता अत: वहां ध्यान शब्द का वास्तविक अर्थ नहीं पाया प्राप्त करते हैं अर्थात् अयोग केवली होते हैं।
जाता फिर भी ध्यान का कार्य कर्म निर्जरा बराबर होती है अत: ध्यान माना जाता प्रश्न- केवली भगवान समुद्रात क्यों करते हैं?
है। समाधान - अंतर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर चारों कर्म की स्थिति समान समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाति ध्यान के द्वारा बाकी बचे चार (अघातिया) कर्मों करने के लिए केवली भगवान समुद्घात करते हैं।
को समूल नष्ट करके वे सिद्ध हो जाते हैं और सिद्ध होते ही ऊर्ध्वगमन करते ठिदि संत कम्म समकरणत्थं, सव्वेसि तेसि कम्माणं । अंतोमुहत्त सेसे जंति, समुग्धादमाउम्मि॥
आविद्यकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालांबुबदेरण्ड बीजवदग्नि शिखावच्च । ॥ भगवती आराधना-२१०६॥
॥ तत्वार्थ सूत्र १०-७॥ आयु कर्म के समान तीनों कर्मों की स्थिति करके मुक्तिगामी सयोग केवली जैसे तुम्बी के ऊपर से मिट्टी का भार उतर जाने पर वह स्वभाव से ही जिन योगों का निरोध करते हैं।
ऊपर को जाती है, वैसे ही कर्म का भार उतर जाने पर सिद्ध जीव भी ऊपर प्रश्न- समुद्घात से कर्म स्थिति कैसे घटती है और सिद्ध पद की। को ही जाता है। जैसे-आतप से सूखकर बीज कोश के फट जाने से ऐरण्ड फल प्राप्ति किस प्रकार होती है?
के बीज ऊपर को ही जाते हैं, वैसे ही कर्म बंधन के कट जाने से जीव भी ऊपर समाधान- जैसे- गीला वस्त्र फैला देने पर जल्दी सूख जाता है, उसी को ही जाता है; अथवा जैसे अग्नि की लपट स्वभाव से ऊपर को ही जाती है वैसे प्रकार आत्म प्रदेशों के फैलाव से संबद्ध कर्म रज की स्थिति बिना भोगे घट जाती ही जीव भी स्वभाव से ही ऊपर को जाता है। ऊपर लोक के अग्रभाग में, मनुष्य है। आशय यह है कि जब एक अंतर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रह जाती है, तब केवली लोक के बराबर परिमाण वाला सिद्ध क्षेत्र है, उसका आकार उत्तान छत्र की तरह समुद्घात करते हैं। समुद्घात के लिए वे प्रथम समय में आत्म प्रदेशों को दण्ड के है। यहां से मुक्त होने के बाद जीव जिस अवस्था पद्मासन या खड़गासन में मुक्त आकार में लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक फैलाते हैं। दूसरे समय में पूर्व और होता है, वही आकार उसका मुक्त होने पर रहता है। केवल अवगाहना मूल शरीर पश्चिम में लोकांत तक फैलाकर मथानी के आकार (प्रतर) कर देते हैं, ऐसा से कुछ कम हो जाती है; क्योंकि शरीर में कुछ स्थान खाली होता है, जब योग करने से लोक का बहुभाग उनके आत्म प्रदेशों से भर जाता है। चौथे समय में निरोध होता है तो वे खाली भाग भर जाने से अवगाहना कम हो जाती है। समस्त लोक को पूरकर लोक पूरण कर देते हैं। लोक पूरण होने के पश्चात् ही
मुक्त होने के बाद सिद्ध जीव तुरंत ऊर्ध्व गमन करता है और लोक के पांचवे समय में आत्म प्रदेशों को संकोच कर मथानी रूप (प्रतर) कर देते हैं। छटे अन्त तक जाकर सिद्ध क्षेत्र पर ठहर जाता है क्योंकि गति में सहायक धर्म द्रव्य समय में कपाट के रूप में संकुचित कर देते हैं। सातवें समय में दण्ड के रूप में लोक के अन्त तक ही पाया जाता है,आगे नहीं पाया जाता और इसके बिना जीव संकुचित कर देते हैं और आठवें समय में दण्ड का भी संकोच करके शरीरस्थ हो का गमन नहीं हो सकता, अत: मुक्त जीव सिद्ध क्षेत्र पर विराजमान हो जाता है। जाते हैं। समुद्घात के द्वारा शीघ्र ही विशिष्ट कर्मों की स्थिति का समीकरण हो। इसी तरह जितने भी जीव मुक्त होते हैं सब ऊर्ध्व गमन करके लोकान्त में स्थिर जाता है।
हो जाते हैं; चूंकि जीव अमूर्तिक है अत: स्थान घिरने का कोई प्रश्न ही नहीं है, इसके बाद योग का निरोध करते हैं क्योंकि तीनों ही योग बंध के कारण इसी कारण जहाँ एक सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं, वहीं अनंत सिद्ध परमेष्ठी भी
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