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बाह्य वस्तु उसमें निमित्त मात्र है; अत: वास्तव में कोई किसी को कुछ देता नहीं।
जप से क्या होने वाला है ? अत: स्थिर चित्त से मन, वचन, काय की एकाग्रता है फिर वीतरागी जिनेन्द्र भगवान या सिद्ध परमात्मा नमस्कार करने का फल देते पूर्वक निराकुल होकर किसी शांत स्थान में सुखासन, पद्मासन, अर्धपद्मासन या हैं यह बात ही निष्प्रयोजनीय है।
खड़गासन में स्थित होकर मंत्र का जाप करना चाहिए। वस्तुत: मंत्र न तो किसी को कुपित करने के लिए जपा जाता है और न किसी को प्रसन्न करने के लिए जपा जाता है; किंतु अरिहंत सिद्ध परमात्मा के गुणों
मंत्र जप के भेद का स्मरण जप करने से चित्त में प्रसन्नता होती है उससे शुभ परिणाम होते
जप तीन प्रकार से किया जाता है - १. मानस जप २. उपांशु जप हैं। शुभ परिणाम पुण्य बंध के कारण हैं और सांसारिक सुख सुविधा अनुकूलता
३. भाष्य जप। पुण्य से प्राप्त होती है तथा शुभ भाव की भूमिका में ही धर्म की प्राप्ति के अवसर होते
१.मानस जप - जो जप मन ही मन में किया जाता है उसे मानस जप कहते हैं, शुभ-अशुभ भाव पुण्य-पाप कर्म बंध के कारण हैं। आत्मार्थी जीव पाप से बचकर पुण्य की भूमिका में रहकर धर्म को प्राप्त करता है। मंत्र स्मरण इसमें
२. उपांश जप - जो अंतर्जल्प रूप हो. और जिसे कोई सुन न सके उसे साधन बन जाता है, जिसका प्रयोजन धर्म की प्राप्ति और फल सिद्धि मुक्ति को
उपांशु जप कहते हैं। इसमें मंत्र के शब्द मुख से बाहर नहीं प्राप्त करना है।
निकलते और कण्ठ स्थान में ही गूंजते रहते हैं। मंत्र जपया ध्यान करने से पहले कुछ आवश्यक बातों पर दृष्टि होना जरूरी
३. भाग्य जप- मंत्र को मुँह से बोलते हए जपने को भाष्यजप कहते हैं। है। बिना श्रद्धा के किया गया कार्य कभी सफल नहीं हो सकता । कहा भी
इन तीनों में सबसे उत्तम जप मानस जप है। मानस जप से नीचे उपांशु है-"विश्वासं फल दायक" विश्वास ही फल देता है। जिस कार्य पर करने वाले
जप है और उपांशु से नीचे भाष्य जप है। इसी कारण प्रारंभ में भाष्य जप किया की श्रद्धा नहीं होती, उसमें उसका मन नहीं लगता और बिना मन लगाए कुछ भी
जाता है, मंत्रों को मुख से बोलकर जप करने से मन की भाग-दौड़ रुक जाती है करने से कोई लाभ नहीं है।
और मन मंत्र जप में लग जाता है। कल्याण मंदिर स्तोत्र का यह छंद यहां स्मरणीय है
भाष्य जप के द्वारा मन की एकाग्रता होते ही उपांशु जप की ओर बढ़ना आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि,
चाहिए अर्थात् मंत्रों को मुख से न बोलकर कंठ में ही उच्चारण करना चाहिए। नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या।
उपांशु जप से मन की एकाग्रता भाष्य जप की अपेक्षा अधिक होती है। इसके जातोऽस्मि तेन जनबान्धव दु:ख पात्र,
पश्चात् मानस जप तो सर्वश्रेष्ठ है ही, इसमें जप का स्थान कण्ठ देश भी न होकर यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव शून्याः॥
हृदय देश होता है, हदय में ही मंत्र का चिन्तन चलता रहता है। हे भगवन् ! तुम्हारा उपदेश सुनकर भी, तुम्हारी पूजा करके भी और तुम्हें
यह मानस जप ही अभ्यास बढ़ने पर ध्यान का रूप ले लेता है। इसी बार-बार देखकर भी अवश्य ही मैंने तुम्हें भक्ति पूर्वक अपने हृदय में स्थापित
कारण वाचनिक जप से यदि सौ गुणा पुण्य होता है तो मानस जप से हजार गुणा नहीं किया। इसी से मैं दु:खों का पात्र बना, क्योंकि बिना भाव के की गई क्रियाएं
पुण्य होता है। कभी भी फलदायक नहीं होती अत: श्रद्धापूर्वक मन को लगाना सबसे प्रथम
हृदय देश में एक खिले हुए आठ पांखुड़ी के कमल की स्थापना करके मन कर्तव्य है।
के साथ प्राणवायु को अंदर स्थिर करके ॐ नम: सिद्धम् मंत्र का चिंतन-मनन दूसरी बात मंत्र का उच्चारण विधिपूर्वक और शुद्ध होना चाहिए। अधिकांश
करने को मानस जप कहते हैं। मानस जप के लिए हृदय में कमल का आकार लोग मंत्र का उच्चारण करना नहीं जानते। कुछ लोग मात्राएं छोड़कर मंत्र जप
चिन्तन किया जाता है। इसके लिए निर्मल कांति युक्त आठ पत्रों के कमल की करते हैं। कुछ लोग कुछ का कुछ बोल देते हैं। जो लोग शुद्ध उच्चारण करना
स्थापना हदय देश में करें। उस कमल की कर्णिका पर ॐ नम: सिद्धम् का जानते हैं वे भी इतनी जल्दी-जल्दी मंत्र बोलते है कि वे क्या कह रहे हैं वे स्वयं ही
चिन्तन करना, और उस कर्णिका से लगे हुए आठ पत्रों पर बाईं ओर के पत्र से नहीं समझ पाते। ऐसे अशुद्ध पाठ से या जल्दी-जल्दी घास काटने की तरह मंत्र
दाहिने ओर के पत्रों पर क्रमश: क्षायिक सम्यक्त्व,केवलदर्शन, केवलज्ञान,
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