________________
७६
श्री ज्ञानसमुच्चयसार जी में दश लक्षणधर्म दहविहि धम्मझायदि वर उत्तमषिमा न्यान संजुत्तं। मद्दव अज्जव सुद्धं सत्तं सउच्च संजम तप त्यागं॥३६७|| आकिंचन बंभवयं, दहविहि धम्मं च सुद्ध चरनानि। झायंति सुद्ध झानं,न्यान सहावेन धम्म संजुत्तं ॥ ३६८|| उत्तम ऊर्ध सहावं षिम षिपनिक रोणिलय सभावं। मद्दव मग उवएसं अज्जव उवसमइ सरनि संसारे॥३६९॥ सत्तं सद्भाव रूवं, सौचं विमल निम्मलं भावं । संजम मन संजमनं, तव पुन अप्प सहाव निद्दिठं ॥ ३७०॥ त्यागं न्यान सहावं, आकिंचन धम्म धुरा वर धरनं । बंभं बंभ सरूवं, न्यानमयं दहविहि धम्मं ॥ ३७१॥ दहविहि धम्म उवएस,धरयति धम्मच जान परमत्थं परिनाम सुद्ध करनं,धरयंति धम्म मुनेयव्वा॥ ३७२॥ [सम्यक्दृष्टि ज्ञानी] (दहविहि धम्मं झायदि) दशलक्षण धर्म को (झायदि) ध्याता है, साधना करता है (वर) श्रेष्ठ (न्यान) सम्यग्ज्ञान सहित (उत्तम षिम) उत्तम क्षमा धर्म को (संजुत्त) धारण करता है (महव अज्जव सुद्ध) उत्तम मार्दव, आर्जव (सत्तं सउच्च संयम तप त्यागं) सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग का आराधन करता है। (३६७) [सम्यक्दृष्टि ज्ञानी] (आकिंचन) आकिंचन (च) और (बंभवयं) ब्रह्मचर्य व्रत सहित (दहविहि धम्म) दशलक्षण धर्म को (सुद्धचरनानि) शुद्ध चारित्र अर्थात् सम्यक्चारित्र का अंग जानते हुए (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव के आश्रय पूर्वक (सुद्धझान) शुद्ध ध्यान में (धम्म) धर्म को (झायंति) ध्याते हैं [और (संजुत्तं) साधना में लीन रहते हैं। (३६८) (ऊर्ध सहावं) ऊर्ध्वगामी अथवा श्रेष्ठ स्वभाव में लीन होकर वीतरागी योगी (षिपनिक श्रेणिलय)क्षपक श्रेणी में आरोहण करते हैं (सभावं) स्वभाव के आश्रय पूर्वक [वैसी ही वीतरागता का अंश प्रगट होना] (उत्तम) उत्तम (षिम)क्षमा धर्म है (उवएस) जिनेन्द्र भगवान के उपदेशानुसार (मग) मोक्षमार्ग पर चलना (मद्दव) उत्तम मार्दव है (संसारे) संसार में (सरनि) जन्म-मरण रूप परिभ्रमण का (उवसमइ) उपशमित हो जाना (अज्जव) उत्तम आर्जव धर्म है। (३६९) (रूव) आत्म स्वरूप का (सद्भाव) सद्भाव अर्थात् त्रिकाल एक रूप बने रहना यही (सत्त) सत्य धर्म है (विमल निम्मलं भावं) विमल निर्मल भाव का प्रगट होना (सौच) शौच धर्म है (संजम मन संजमन) मन का संयमन करना संयम धर्म है (पुन) और पुनश्च (अप्प सहाव) आत्म स्वभाव में लीनता को (तव) तप धर्म (निट्ठि) निर्दिष्ट किया अर्थात् कहा गया है। (३७०) (त्यागंन्यान सहाव) ज्ञान स्वभाव में जाग्रत रहना त्याग धर्म है (वर) श्रेष्ठ (धम्म) वीतराग धर्म की (धुरा) धुरा को (धरन) धारण करना अर्थात् निर्ग्रन्थ वीतरागी होना (आकिंचन) आकिंचन्य धर्म है (बंभ सरूवं) ब्रह्म स्वरूप में चर्या करना (ब) ब्रह्मचर्य धर्म है [इस प्रकार (दहविहि धर्म) दशलक्षण धर्म (न्यान मयं) ज्ञान मय हैं। (३७१) (च) और इस प्रकार (दहविहिधम्म उवएस) दशलक्षण धर्म का उपदेश दिया, सम्यकदृष्टि ज्ञानी (धर्म) धर्म को (परमत्थं) कल्याणकारी (जान) जानकर अर्थात् ज्ञानपूर्वक (धरयति) धारण करते हुए (परिनाम सुद्ध करन) परिणामों की शुद्धि में वृद्धि करने के लिये (धम्म) धर्ममय (धरयंति) जीवन जीते हैं, ऐसा (मुनेयव्वा) जानो। (३७२)