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________________ ५२ जिज्ञासा- पाँच मतों में विचार मत आचार मत.........इस क्रम का सटीक प्रमाण क्या है? समाधान- आचार्य श्री जिन तारण स्वामी जी ने पाँच मतों में चौदह ग्रंथों की रचना की। इनमें विचार मत में-साध्य, आचार मत में-साधन, सारमत में-साधना, ममल मत में-सम्हाल और केवलमत में सिद्धि इस प्रकार क्रमश: कथन किया है। अत: विचार मत, आचार मत, सारमत आदि यही क्रम युक्ति संगत बैठता है। सिंगोड़ी से प्राप्त ठिकानेसार में इनका वर्णन इस प्रकार है- पाँच मत विदि-विचारमति, आचार मति, सार मति, ममल मति, केवलमति । सन् १९८४ में गंजबासौदा में आयोजित विद्वत् शिविर में भी विचार मत, आचार मत, सारमत आदि इसी क्रम से सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया था। अत: विचार मत, आचारमत, सारमत, ममलमत, केवलमत इसी क्रम से उल्लेख किया गया है, ऐसा ही सबको पढ़ना चाहिये। जिज्ञासा- आचार्य दाता, सहाई दाता आदि शब्द क्यों दिये गये हैं? समाधान- 'आचार्य दाता, सहाई दाता, प्यारो दाता' यह गुरू की महिमा और बहुमान को प्रगट करने वाले शब्द हैं अत: परम्परा की प्राचीनता को बनाये रखने के लिये अबलबली के बाद उक्त शब्द समूह दिये गये हैं। जिज्ञासा- संसारे तरण के स्थान पर उचित और शुद्ध क्या है ? समाधान- अंतिम प्रमाण गाथाओं में 'संसग्ग कम्म खिवणं' गाथा में 'संसारे तरण मुक्ति गमनं च' स्थान पर मूल पाठ के अनुसार 'संसारं तिरन्ति मुक्ति गमनं च' किया गया है, जो उचित है। जिज्ञासा- 'गुण वय तव सम पडिमा दाणं' यह गाथा सबसे अंत में क्यों पढ़ना चाहिये? समाधान- अंतिम प्रमाण गाथाओं में अनेक स्थानों पर संसग्ग कम्म खिवणं पहले और गुण वय तव सम गाथा बाद में पढ़ी जाती है और कुछ स्थानों पर गुण वय पहले और संसग्ग कम्म खिवणं बाद में पढ़ने का क्रम चल रहा है ; किन्तु प्रमाण के आधार पर विचार करें तो संसग्ग कम्म खिवणं पहले और गुण वय तव सम गाथा सबसे अंत में पढ़ने की प्रासंगिकता सिद्ध होती है। वह इस प्रकार है कि प्रारंभ से इन प्रमाण गाथाओं में अरिहंत परमात्मा, जिनबिम्ब, जिनप्रतिमा आदि का स्वरूप बताया गया है, वह सब व्यवहार नय से है और इन्हीं गाथाओं के तत्काल बाद संसग्ग कम्म खिवणं गाथा आती है, जिसका भाव है अरिहंत आदि परमेष्ठीमयी निज शुद्धात्मा है, निश्चय से ऐसे स्वभाव का संसर्ग करने से कर्म क्षय होते हैं,संसार से तिरते हैं और मुक्ति की प्राप्ति होती है। संसार से छूटना, मुक्त होना यह लक्ष्य है, इसकी प्राप्ति के लिये ५३ क्रियाओं का आचरण पालन करना आवश्यक है अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक उत्तम पात्र वीतरागी साधु १९ क्रिया (१२ तप,७ शील) पालते हैं। मध्यम पात्र देशव्रती श्रावक १६ क्रिया (११ प्रतिमा, ५ अणुव्रत) का पालन करते हैं और जघन्य पात्र तत्त्व श्रद्धानी अविरत सम्यक्दृष्टि श्रावक १८ क्रियाओं (८ मूलगुण, ४ दान, ३ रत्नत्रय, समताभाव, पानी छानकर पीना, रात्रि भोजन त्याग) का पालन करते हैं, इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति का निश्चय-व्यवहार से समन्वित, प्रायोगिक मार्ग है। इसी कारण गुण वय तव सम गाथा सबसे अंत में पढ़ी जाती है। क्योंकि यही चर्या है जो श्रावक से साधु, साधु से अरिहंत और अरिहंत से सिद्ध पद प्राप्त कराती है अत: गुण वय तव सम गाथा सबसे अन्त में ही पढ़ना चाहिये।
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
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