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निज को स्वयं निज जान लो, पर को पराया मान लो । यह भेदज्ञान जहान में, निज धर्म है पहिचान लो | इससे प्रगटता आत्मा में, अचल केवलज्ञान है । सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ९ ॥ है धर्म वस्तु स्वभाव सच्चा, जिन प्रभु ने यह कहा । हर द्रव्य अपने स्व चतुष्टय में, सदा ही बस रहा ॥ आतम सदा ज्योतिर्मयी, परिपूर्ण सिद्ध समान है । सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ १० ॥ आनंद मय रहना सदा, बस यही सच्चा धर्म है । इस धर्म शुद्ध स्वभाव से, निर्जरित हों सब कर्म हैं | रत रहो ब्रह्मानंद में, पाओ परम निर्वाण है । सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ११ ॥
जयमाल वीतरागता धर्म है, सब शास्त्रों का सार | लीन रहो निज में स्वयं, समझाते गुरू तार || १ || सत्य धर्म शिव पंथ है, निर्विकल्प निज भान । भेद ज्ञान कर जान लो, चेतन तत्व महान || २ || कथनी करनी एक हो, तभी मिले शिव धाम | संयम तप मय हो सदा, ज्ञायक आतम राम || ३ || धर्म - धर्म कहते सभी, करते रहते कर्म । अपने को जाने बिना, होता कभी न धर्म || ४ || निज पर की पहिचान कर, धर लो आतम ध्यान । इसी धर्म पथ पर चलो, पाओ पढ निर्वाण || ५ ||
धर्म की महिमा धर्म आत्मा का शुद्ध स्वभाव, वस्तु स्वभाव है, धर्म किसी शुभ-अशुभ क्रिया काण्ड में नहीं होता।शुभ-अशुभ क्रियायें पुण्य-पापबंध की कारण हैं। धर्म तो निर्विकल्पता शुद्धात्मानुभूति है, यही सत्य धर्म है जो आत्मा के समस्त दु:खों का अभाव कर परमात्म पद प्राप्त कराने वाला है। ऐसा महान सत्य धर्म अंतर आत्मानुभूति में सदा जयवंत हो।