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मिथ्या बुद्धि का तम हरने, ज्ञान रवि हो सरस्वती । सम्यक् ज्ञान करा दो मुझको, सुन लो अब मेरी विनती ॥ अनेकान्त का सार समझ कर, हो जाऊं भव पार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का सार है ॥ ९ स्याद्वाद की गंगा से, कु ज्ञान मैल धुल जाता है । ज्ञानी सम्यक् मति श्रुत बल से, केवल रवि प्रगटाता है | आत्म ज्ञान ही उपादेय है, बाकी जगत असार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का सार है ॥ १० ॥ भव दु:ख से भयभीत भविक जन, शरण तिहारी आते हैं । स्वयं ज्ञान मय होकर वे, भव सिन्धु से तर जाते हैं | आत्म ज्ञान मय जिन वचनों की, महिमा अपरम्पार है । स्वानुभूति ही सच्ची पूजा, जिनवाणी का सार है ॥ ११ ॥
जयमाल वीतराग जिन प्रभु का, यह सन्देश महान | चिदानन्द चैतन्य तुम, शाश्वत सिद्ध समान || १ || द्वादशांग मय जिन वचन, श्रृत महान विस्तार | जीव जुदा पुदगल जुदा, जिनवाणी का सार || २ || करो सुबुद्धि जागरण, सम्यक् मति श्रुत ज्ञान । निश्चय जिनवाणी कही, तारण तरण महान || ३ || जिनवाणी की वन्दना, करूं त्रियोग सम्हार | ब्रह्मानंद में लीन हो, हो जाऊं भव पार || ४ || करो साधना ध्रौव्य की, बढ़े ज्ञान से ज्ञान | ज्ञान मयी पूजा यही, पाओ पद निर्वाण || ५ ।।
जिन वचनों की महिमा वीतरागी जिनेन्द्र परमात्मा के द्वारा जो अर्थ रूप से उपदिष्ट है तथा गणधरों के द्वारा सूत्र रूप से गुंथित है। स्व पर का बोध कराने वाले ऐसे श्रुतज्ञान रूपी महान सिन्धु को मैं भक्ति पूर्वक प्रणाम करता हूँ।