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भजन- १२ चेतन के चैतन्य परिणति, जब अपने में रहती है । तब अंतर में ज्ञान की गंगा, स्वानुभूति मय बहती है ॥ राग भिन्न है कर्म भिन्न है, न्यारा है सब जड़ संसार । ज्ञेय भिन्न है ज्ञान भिन्न है, यह जिनवरवाणी का सार ॥ आत्म तत्त्व की कथा निराली, वह अनंत गुण का भंडार । अनुभूति उसकी कुंजी है, जो खोले चारों ही द्वार ॥ अनंत चतुष्टयमय की बगिया फिर, अपने आप महकती है......तब..... अविरत सम्यक् दृष्टि श्रावक, निज पर को जब लखता है । पलक झपकती है पल भर को, वह अमृत रस चखता है ॥ देश व्रती श्रावक भी यद्यपि, राग भूमिका वाला है । फिर भी ज्ञायक की मस्ती में रहने को मतवाला है ॥ छटे सातवें गुणस्थान में, अद्भुत मस्ती रहती है......तब..... उपशम या क्षायिक श्रेणी पर, जो आरोहण करते है । वीतराग निर्ग्रन्थ साधु वे, मुक्ति श्री को वरते हैं | केवल ज्ञानी और सिद्ध प्रभु, स्वानुभूति रत रहते हैं । सच्चे ज्ञानी वही जगत में, जो कुछ भी न कहते हैं | निर्विकल्प होकर परिणति जब, धुव स्वभाव को गहती है......तब..... ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता अभेद है, वहां भेद का काम नहीं । जब तक भेद पड़ा है तब तक, अपने में विश्राम नहीं ॥ मैं आतम हूँ यह विकल्प भी, स्वानुभूति में बाधा है । सब विकल्प तज कर ज्ञानी ने, निज अनुभव को साधा है | इसी साधना से कर्मों की, सब दीवारें ढहती हैं......तब..... निज पर का श्रद्धान स्वानुभव, ज्ञान जगाओ निज पर का । रागादि तज स्वरूपस्थ हो, यही मार्ग है निज घर का ॥ पर का सब बहुमान मिटाओ, तुम तो हो खुद ही भगवान | ब्रह्मानंद स्वरूप तुम्हारा, अशरीरी है सिद्ध समान ॥ शुद्ध परिणति ध्यान अग्नि है, जो विकार को ढहती है......तब.....
स्वाश्रय से मुक्ति और पराश्रय से बंध मैं एक अखण्ड ज्ञायकमूर्ति हूँ, विकल्प का एक भी अंश मेरा नहीं है - ऐसा स्वाश्रयभाव रहे वह मुक्ति का कारण है, और विकल्प का एक अंश भी मुझे आश्रयरूप है - ऐसा
पराश्रयभाव रहे वह बन्ध का कारण है।