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भजन - १६ तारण तरण जिहाज हमारे गुरु,तारण तरण जिहाज ॥ डूबत हों भव सागर माहीं, पार लगा दीजो आज ॥ हमारे... क्रोधमान माया लोभ विवर्जित, करत आपनो काज॥ हमारे... कामी क्रोधी पतित उबारे, सारे सबके काज || हमारे... माखन की अरजी चित धरिये, बांह गहे की लाज | हमारे...
फूलना अठ दह सागर कोड़ाकोड़ी चौथे काल प्रवेश भये ॥ प्रथम तीर्थंकर आद जिनेश्वर, धर्म हि धर्म प्रकाश भये । बीस लाख कुंवरा वय भुगते,त्रेसठ लाख राजाब लियो || एक लाख वैराग्य सिधारे, तज संसार विराग लियो । राज पाठ सब भरतहिं दीनों, संजम तप कैलाश गये ॥ वट के वृक्ष जहाँ आसन दीन्हों, देवन आय महोछौ ठये । जब मोरे जिनवर वन को चाले, षट् महिना के जोग लिये || सहस्र वर्ष को मौन जो रहियो, आहारे परिभाव किये । जब मोरे जिनवर वन से आये, निरख निरख पग धरत भये || कोई गज तुरिय ले आये, कोई अम्बर पाठ धरे । कोई हीरा रतन पदारथ, कोई गज मोतिन थार भरे ॥ कोई कुमकुम चन्दन गालें, कोई ने माथे तिलक दये । कोई ने कलस वन्दना कीनी, कोई ने केशर तिलक दये || भाव वन्दना काहू न कीनी, लौट जिनेश्वर वन को गये । आहार विधि काहू न जानी, जिनवर ने न अहार लये ॥ राजा श्रेयांस को सपनों दीनों, सोलह सपने प्रगट भये । सात सौ कोल्हू रस जो पिरायो, अहूट अंजुलि भरन गये ॥ आहार दान मुनिवर को दीनों, हीरा मोती बरस गये । पुण्य प्रभाव राजा को कहिये, होंगे मंगलाचार नये ॥
चेतावनी बिना त्याग वैराग्य के, होय न निज का ज्ञान । अटके त्याग विराग में, तो भूले निज भान ||